नोबेल, भारतीय लेखक और वैश्विक संवाद की सीमाएँ

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 16, 2025 शोध लेख 0

“भारतीय साहित्य में गहराई की कमी नहीं, पर संवाद और अनुवाद की दीवार उसे वैश्विक कानों तक पहुँचने नहीं देती। नोबेल से बड़ा है वह शब्द जो सीमाएँ लांघ जाए।”

काम वाली बाई — एक व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

पहले आदमी अपनी कुंडली देखकर तय करता था कि आज दिन कैसा रहेगा; अब बस यही देखता है — बाई आ रही है या नहीं! अगर नहीं आ रही तो समझ लीजिए — आज का दिन शुभ नहीं है। घर में बर्तन, झाड़ू और रिश्ते — सब एक साथ बजते हैं। गृहस्थी के इस धर्मयुद्ध में ‘काम वाली बाई’ ही असली दुर्गा है — जो झाड़ू को त्रिशूल और पोछे को शंख बनाकर कलह रूपी राक्षस का संहार करती है।”

पालतू कुत्ता — इंसान का आख़िरी विकास चरण

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

अब मनुष्य “सामाजिक प्राणी” से “पालतू प्राणी” में विकसित हो चुका है। पट्टा अब कुत्ते के गले में नहीं, बल्कि उसकी ईएमआई और सोशल मीडिया की आदतों में है। बच्चों से बचत कर, जिम्मेदारियों से बचकर जब जीवन में भावनात्मक खालीपन आता है — तो इंसान “टॉमी” पाल लेता है और धीरे-धीरे खुद ही कुत्तानुकरण काल में प्रवेश कर जाता है।

भारतीय दर्शनशास्त्र: जब प्रश्न व्यवस्था माँगते हैं — आत्मबोध से विश्वबोध तक

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 15, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

भारतीय दर्शन उस अनूठी यात्रा का नाम है जो व्यक्ति के “मैं” से शुरू होकर “हम” तक पहुँचती है। न्याय बुद्धि को कसौटी देता है, वैशेषिक जगत की रचना को व्यवस्थित करता है, सांख्य भीतर के साक्षी को पहचानता है, योग उस साक्षी में ठहरना सिखाता है, मीमांसा कर्म की पवित्रता को जोड़ती है, और वेदांत बताता है कि यह सब एक ही ब्रह्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। यह ज्ञान का नहीं, अनुभव का मार्ग है — जहाँ आत्मबोध विश्वबोध में बदल जाता है।

आत्मबोध से विश्वबोध तक — चेतना की वह यात्रा जो मनुष्य को ‘मैं’ से ‘हम’ बनाती है

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 15, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

"जब मनुष्य अपने भीतर के ‘मैं’ से जागता है, तभी उसके बाहर का ‘हम’ जन्म लेता है। आत्मबोध से विश्वबोध की यह यात्रा केवल ध्यान या साधना नहीं, बल्कि समरसता, करुणा और दायित्व का जागरण है — जहाँ व्यक्ति स्वयं से उठकर सम्पूर्ण सृष्टि का अंग बन जाता है।"

हम आपका लेख छापेंगे… किसी दिन

Wasim Alam Oct 14, 2025 व्यंग रचनाएं 2

लेखन भेजना आसान है, लेकिन उसके बाद की प्रतीक्षा ही असली ‘कहानी’ बन जाती है। संपादक का “यथासमय” जवाब लेखकों के जीवन का सबसे रहस्यमय शब्द है — न वह आता है, न जाता है, बस उम्मीदों के गोदाम में लटका रहता है। हर लेखक अपने मेलबॉक्स में “प्रकाशन” नहीं, बल्कि व्यंग्य ढूंढता है — क्योंकि लेख छपे या न छपे, व्यंग्य तो मन में खुद-ब-खुद छप ही जाता है।

अमिताभ: स्टारडम से सरोकार तक — एंग्री यंग मैन की जर्नी, रिश्ते और विवाद

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 13, 2025 People 1

चार पीढ़ियों को मोहित करने वाली आवाज़ से लेकर राजनीति, रिश्तों और 1984 के आरोपों तक—अमिताभ बच्चन की जर्नी जहां स्टारडम चमकता है और सरोकार सवाल पूछते हैं। ‘जंजीर’ की विजय-गाथा, ‘दीवार–शोले’ का स्वर्णकाल, जया–रेखा एपिसोड, गांधी परिवार से नज़दीकियाँ, ‘कूली’ हादसा और 1984 पर उठे प्रश्न—एक समग्र टाइमलाइन और संदर्भ।

विश्व आर्थराइटिस दिवस: जोड़ो से जुड़ी वो कहानी, जिसे समझना ज़रूरी है

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 12, 2025 Health And Hospitals 0

On World Arthritis Day, let’s pause to listen to what our joints are trying to tell us. Pain, stiffness, and swelling are not just signs of aging — they’re reminders to care, consult, and keep moving. Awareness today can mean a healthier tomorrow.

हम उस ज़माने के थे -हास्य व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 12, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"हम उस ज़माने के थे — जब 'फ्री डिलीवरी' मतलब रामदीन काका के बाग़ के अमरूद थे।" "खेतों की हवा, खाट पर रातें और दादी की चिड़िया-कहानी — हमारी असली मौसम रिपोर्ट।" "आज के ऐप्स से पहले हमारा 'डेटा' था मिट्टी की नमी और चिड़ियों की चहचहाहट।"

चुनावी टिकट की बिक्री-हास्य व्यंग्य रचना

Ram Kumar Joshi Oct 11, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"सर्किट हाउस की दीवारों में लोकतंत्र की गूँज नहीं — सिर्फ फ़ोटोग्राफ़ और आरक्षण की गंध है।" "माला पहनी, सेल्फी ली — और गांधी टोपी मंच के कालीन में दफन। यही है हमारे सार्वजनिक उत्सव की सच्ची तस्वीर।" "चुनाव नज़दीक हैं; इसलिए सच्चाई थोड़ी पीछे छूट जाए — पर सेल्फी तो अभी ले लो।"