आज के उल्लासपूर्ण युग में, जहां हर चीज की एक विशेष उद्योग विकसित हो चुकी है, वहां नामकरण संस्कार भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। ऐसे आयोजन जो कभी साधारण समारोह हुआ करते थे, आज उन्हें अनूठा और अद्वितीय बनाने के लिए विशेष साइटें और शब्दकोश हैं।
बच्चों के नाम को यूनिक बनाने के लिए लोग ऐसे-ऐसे शब्द लेकर आते हैं कि उसका अर्थ जानने के लिए आपको न जाने कितनी देश-विदेश की भाषाओं का गहन अध्ययन करना होगा। जितना गूढ़ रहस्य पौराणिक संस्कृत के प्राचीनतम रचनाओं के मन्त्रों में मिलेगा उस से कहीं अधिक आपको इन नामों के अर्थ की गुत्थी सुलझाने में लगेगा |
एक हमारा बचपन था, जहा कुछ ही घर जन्म पर पंडित जी से जन्मपत्री बनवा लेते थे। जो पंडित अक्षर बताता, उस नाम के आगे राम का नाम आगे या पीछे लगाकर नाम को भी पूरे परिवार के लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते थे। चलो इस बहाने घर में राम का नाम बोला जाएगा। वैसे गांवों में नामों का सरलीकरण था, जो घसीट के चलता वो घसीट्या, जो धूल में ज्यादा खेलता वो धूलिया, जिसकी नाक किसी चोट से कट गई और नाक पे स्कार बन गया वो नकटा, जो गोल मटोल था गोलू। और तो और गिनतियां ही नाम का काम करती, इस बहाने बच्चा आराम से १० तक की गिनती तो गिन ही लेता। इस बहाने परिवार कितने बच्चे पैदा कर दिए इस की संख्या का भी गुमान रहता और बच्चों में छोटे बड़े का पता भी लग जाता जैसे पहले पैदा हुआ पूर्वा, दूसरा बच्चा दुज्या , तीसरा तीज्या, चौथा चौथा, पांचवा पंज्या आदि। इसी बीचमे अगर बच्ची हो जाती तो ई की मात्रा लगा देते जैसे दूसरी बच्ची तो दूजी, तीसरी तो तीजी। यहाँ जिस महीने में पैदा हुआ उस के हिसाब से भी नामकरण होता जो सावन में वो श्रवण मल ,जो पोश माह में वो फ़ूस मल आदि . बच्चों के नाम में भगवान् के नाम की प्राथमिकता कई बार दो दो नाम एक साथ भगवान् के ,शिव राम,भगवन राम, आदि , बच्चों के जन्म दिवस को याद रखने की जरूरत तो होती ही नहीं थी, उस समय कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं से बच्चे की जन्मदिवस को बुकमार्क कर लेते थे – जैसे छप्पननिया काल पड़ा ना जब ये दो साल का था जी, जब इंदिरा गांधी जी की हत्या हुई ना तब इसके दो दिन पहले ही जन्मा जी। फिर नाम का थोड़ा राजनीतिकरण हुआ, और बड़े राजनीतिक परिवार फिल्मकारों के परिवार का सर्वनाम मुख्य नाम होने लगा जैसे कपूर, गांधी, मिश्रा। ये उपनाम नहीं मुख्य नाम होने लगे। जैसे गाँधी मीना, मिश्र राम,कपूर मीना, आदि
इसके साथ ही एक प्रचलन और चला, घर में राम के साथ और देवताओं के नाम का सम्मलित होने लगा जैसे महेश, देवेश, इंद्रा, विष्णु, कृष्णा, सुरेश, आदि। अब इसके साथ ही घर में लड़कियों के पैदा होने पर उनका अलग से नाम ढूंढने की जरूरत नहीं, जैसे भाई का नाम महेश तो बहिन का महेशी, सुरेश भाई का बहिन का सुरेशी। नाम तो रख देते थे लेकिन नाम को याद रखने की झंझट भी कोई नहीं उठाता। ये नाम सिर्फ स्कूल में लिखवाने के काम आते थे। गांव में तो फलाने का लोंडा, फाने को छोरा, फलाने को लाला,या लाली,फलाने का मोंदा या मोंडी आदि से ही जानते थे। ये ही हमारी पहचान थी। और घर में मम्मी भी हमें प्यार से कई उपनामों से पुकारती थी। उपनाम मम्मी के मूड और हमारे कुर्दन्तों की दास्तां कलाई खुलने के साथ रोज बदलते जाते थे। अच्छे मूड पर छोरा और गुस्से में तो कई उपनाम एक साथ जैसे निपुटे, करम ठोक, करम जले, राक्षस आदि से नवाजे जाते। आजकल नाम को लेकर जैसे न्यूमेरोलॉजी वालों ने हाइप क्रिएट किया है, उसे देखकर कभी-कभी माथा पकड़ लेता हूँ। मेरी संस्था के मेम्बर्स की लिस्ट बना रहा था कि कई नाम में बड़े ऑब्जेक्शन आए। किसी के नाम में एक एक्स्ट्रा ‘ओ’ लग गया, एक एक्स्ट्रा ‘ए’ लग गया, किसी के नाम में दो ‘एस’ की जगह एक ‘एस’। ऋतिक रोशन के नाम के आगे एक ‘एच’ क्या लगा, सभी इस नाम के रिफाइनिकरण में अपने आप को खपा दिए हैं।
, यह सब आज के समय में नामकरण की दिलचस्पी और जटिलताओं को दर्शाता है।इस नई सदी की नामकरण संस्कारों में, शायद हमें उस सादगी और वास्तविकता को याद करने की जरूरत है जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखती है। नाम के पीछे की सादगी और उसके अर्थ को समझें, न कि केवल उसकी विलक्षणता को। शायद फिर हम उस नामकरण संस्कार की सच्ची भावना को पुनः प्राप्त कर सकें, जो किसी व्यक्ति के जीवन में एक सार्थक पहचान और दिशा प्रदान करता है।