जब से लेखन का शौक चढ़ गया है ,और कुछ गिने-चुने पाठकों ने मेरे लेखन में दिलचस्पी लेनी शुरू की है, मुझे लगा कि अब कुछ अपना ढंग-चाल व्यवहार भी लेखकों की तरह करवा लिया जाए।जब हर चीज का बजारीकरण हो चुका है वहां साहित्यिक गतिविधियाँ भी इसकी भेंट चढ़ जाए तो इसमें कौन सी अतिश्योक्ति है,सोशल मीडिया पर तो साहित्यकार ,कविकार,रचनाकार,कविताकार बनने के लिए बड़े बड़े विज्ञापन फ़्लैश होते , जब से मैंने मेरे कुछ लेख सोशल मीडिया पर डालना शुरू किया है तब से सोशल मीडिया ने मुझे इस प्रकार के एड़ दिखने शुरू भी कर दिए है, सोशल मीडिया वाले भी न गजब हैं ,आपको ये बताने में कसर नहीं छोड़ते की बिना हमारे एड़ को क्लिक किये और इसका सब्सक्रिप्शन लिए आप इस नयी पनपी हुई कला में पारंगत हो ही नहीं सकते. गए वो दिन जब आदमी यह सोचकर खुश होता था की जो विधा में वो पारंगत है वो उसकी नैसर्गिक प्रतिभा है , सोशल मीडिया ने इस तरह की गंध फेलाई है की कोई बेचारा कह कह कर थक़ जाए की भाई ये प्रतिभा तो मेरी नैसर्गिक है ,वह मानने को तैयार ही नहीं है |
वैसे सोशल मीडिया को मेरे ऊपर संदेह करने के लिए एक और कारन है,चूँकि में डॉक्टर हु,और डॉक्टर एक लेखक ? ये तो भाई कहीं से मेल ही नहीं खाता | खासकर हमारे प्रिस्क्रिप्शन में उकेरी गई लेखनी से तो हरगिज़ नहीं ! कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता कि किस भाषा में कोई कविता या गद्य रचना हमने लिखी है, सिवाय फार्मासिस्ट के कोई नहीं पढ़ सकता है। और अगर हम अपनी लेखनी से लिखे साहित्य को बाजार में भेजें भी तो इस प्रकार से तो पाठकों की संख्या सीमित ही रह जाएगी। वैसे भी फार्मासिस्ट को सिर्फ हमारी भाषा में लिखी गई दवाइयों में ही इंटरेस्ट है, मेरे द्वारा लिखे गए गद्य ,पद्यों से उनकी कौन सी दुकान चलने वाली है। ये तो भला हो लेखनी के डिजिटलाइजेशन ने जिसने ये लिबर्टी दे दी है कि हम जैसे डॉक्टर भी अपनी लेखनी का कीड़ा कुछ हद तक कुलबुला सकें ।लेखनी की जगह कीबोर्ड जो पकड़ा दिया है ! अब जब धीरे-धीरे मेरे परिचितों और रिश्तेदारों को इस कीड़े का पता चला है तो कुछ मिश्रित भाव वाली सलाहें भी आने लगी हैं। आखिर तो वैसे भी सलाह इस देश की ऐसी परंपरा है जो चिरकाल से मुफ्त में इधर से उधर परोसी जा रही है , मुफ्त की सलाह जो देने वाला होता है वो सलाह के विषय अनुसार अपने को ज्योतिष, पंडित, आर्किटेक्ट, डॉक्टर, वकील, लेखक सभी में एक्सपर्ट बना लेता है और इस कॉन्फिडेंस के साथ परोसी जाती हैं कि सामने वाले को लगता है कि अगर सलाह नहीं मानी तो जीवन व्यर्थ है। तो हमें भी सलाह मिलने लगी, हमें किताबें पब्लिश कराने की, प्रकाशकों से सांठ-गांठ करने की , ऊँचे रसूख ,ऊँचे कद और ऊँची पहुंच वाले लेखकों की चापलूसी करने,उनके घर के चक्कर लगाने से लेकर उनके ग्रह कार्यों में हाथ बंटाने की ,लेखक की धर्मपत्नी तक अपनी पहुँच बढाने की , अपनी दाढ़ी मूंछे बढ़वाने, यहाँ तक की ,एक कंधे पर झोला लटकाने वाली भी ! सब प्रकार की सलाह मिली। पता नहीं क्यों सलाह कभी मेरे भेजे में घुसती ही नहीं है। कई मेरे परिचित लेखक और जाने-माने रचनाकार जो मेरे इस शौक से मेरे संपर्क में आए उन्होंने मुझे सलाह दी कि आप फलां-फलां व्यंग्यकारों को पढ़ो, उनकी लेखन विधा की नकल करो। कोशिश भी की लेकिन पता नहीं लिखते लिखते कब अपनी असली विधा पर आ जाता हूं पता ही नहीं चलता। कुछ मेरे परिचितों ने सलाह दी की कुछ गिने चुने व्यंगकारों की किताबें ऑनलाइन मंगवाई जाए, उन्हें पढी जाई, तभी एक अच्छे रचनाकार बन सकते हो, यकीन मानो ,वो भी किया, बुक्स मंगवाई, शोकेस में सजा दी गयी है, उनके साथ एक सेल्फी खींचकर सोशल मीडिया पर पोस्ट भी कर दी थी , कई दिनों तक पुस्तकों को सिरहाने के नीचे रखकर सोया भी ,लेकिन कुछ भी माथे में नहीं घुसा ,फिर पता लगा की इन्हें पढ़ना भी है तो इक्के दुक्के पन्ने पलटने के आलावा ये नित्यकर्म भी नहीं कर सका, कुछ आलसी स्वभावभ भी है क्या करूँ. एक सलाह मिली की गद्य रचना सबसे कठिन विधा है और इसके लिए एकांत माहौल, एकाग्रता चाहिए तब विचार आते हैं, लेकिन जब भी ऐसा किया, एक भी साहित्यिक सर्जन के विचार दिमाग में आते ही नहीं,जो भी आता वो बिजली का बिल, मरीजों के एक्सरे , बैंक की ई एम् आई ही भेजे में आती है | लिखने का काम हमेशा तब होता है जब में खुद अपनी ओ पि डी में मरीजों से घिरा रहता हु ,भला हो मोबाइल और डेस्कटॉप का की जैसे ही विचार मन में कौंधा वैसे लिख दिया तो सही वरना , स्मृति इतनी वीक कि 1 घंटे बाद याद ही नहीं रहता कि क्या विचार आया था। खैर , कहने का मतलब ये है की शायद मेरे असली लेखक बनने की दिली तमन्ना दिल में दफ़न होकर ही रह जायेगी, एक जो अंतिम सलाह मुझे मिली थी वो ये थी कि अच्छे लेखक हमेशा अपने नाम के आगे तखल्लुस लगाते हैं। पहले तो ये शब्द ही मेरी समझ में नहीं आया कि तखल्लुस किस चिड़िया का नाम है, फिर ऑनलाइन डिक्शनरी में ढूंढा तब जाके माजरा स्पष्ट हुआ। ये तो सही है सभी जाने-माने और अनजाने,नवोदित अंकुरित लेखकों से लेकर विशाल वाट वृक्ष सामान सभी लेखक इस तखल्लुस यानी कि उपनाम से नवाजे जाते हैं। “तखल्लुस” एक उर्दू शब्द है , जो एक प्रकार का कलात्मक उपनाम होता है जिसे शायर ,कविकार,रचनाकार,कलमकार अपनी रचनाओं में इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, हिंदी साहित्य में यह परंपरा उतनी प्रचलित नहीं है जितनी कि उर्दू में है। फिर भी, कई हिंदी कवियों ने भी अपने लेखन में उपनाम का प्रयोग किया है। यहाँ कुछ प्रसिद्ध हिंदी कवियों के उपनाम दिए गए हैं:
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हरिवंश राय ‘बच्चन’ जयशंकर ‘प्रसाद’ सुमित्रानंदन ‘पंत’ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ राम नरेश ‘त्रिपाठी’ मैथिलीशरण ‘गुप्त’ भवानी प्रसाद ‘मिश्र’ गोपालदास ‘नीरज’ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ धर्मवीर ‘भारती’ केदारनाथ ‘अग्रवाल’ रघुवीर ‘सहाय’ अज्ञेय (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन) काका ‘हाथरसी’ गोपाल प्रसाद ‘व्यास’ बालकृष्ण ‘शर्मा नवीन’
अब इस तखल्लुस में हमारी भी दिलचस्पी बढ़ी कि, हमें भी कोई न कोई तखल्लुस रखना ही चाहिए ,हमे लगा की बिना इसके हमारा ये सारे लेखन घर में ही कूड़ेदान की तरह पड़ा हुआ कहीं अलमारियों में सड नहीं जाए, पता लगे की हमारे साहित्यिक सृजन के ढेर को सिर्फ दीवाली की सफाई में निकल कर झाड पोंछकर दुबारा सालभर के लिए रखा जाने लगा है , ऐसी दुर्दशा के अंदेशे मात्र से मेरा मन सिहर उठा। नहीं, तखल्लुस हम भी रखेंगे, फिर रेज्यूम में भी हमारे नाम के आगे तखल्लुस होगा तो पब्लिशर और एडिटर की निगाह शायद हमारे लेखन पर पड़ जाए और हमारी रचना प्रकाशित हो जाए। तखल्लुस रखना तो है लेकिन क्या रखें ? एक यक्ष्य प्रश्न जो मुझे खाए जा रहा है ! मेरे हिसाब से जैसे देश में बच्चा पैदा होते ही नाम की तलाश होती है, कोई डिक्शनरी खंगालते हैं, नाम रखने का व्यवसाय पंडितों की पोथियों से हटकर आजकल ऑर्गनाइज्ड कंपनियों का बिजनेस बन गया है, डिक्शनरी निकाली जा रही हैं, कई ऑनलाइन साइट बन गयी हैं | मैं भी किसी ऐसी साइट को ढूंढने लगा जहाँ मुझे कोई अनूठा सा अब तक जिसे किसी ने उपयोग में नहीं लिया हो ,ऐसा कोई तखल्लुस मिल जाए ,लेकिन निराशा ही हाथ लगी | हार के मैं खुद ही अपने दिमाग को इस में खपाने लगा, लेखन छोड़कर पहले अपने नाम के आगे तखल्लुस लगाने की सनक सवार हुई, सबसे पहले मुझे याद आया कि क्यूँ न बचपन का निक नेम ही रह लिया जाए लेकिन बचपन में तो माँ मुझे नालायक, कर्म जला, कर्म फूटे, नास पीटे कह कर पुकारती थी, गांववाले मुझे फलाने का छोरा,लोंडा,लड़का आदि नाम से नवाजते थे ,मुझे लगा शायद इस तरह का तखल्लुस प्रकाशकों और पाठकों को ज्यादा खुश नहीं कर पाए। फिर कुछ मेरी वास्तविक दशा और अखवार में प्रकाशित राशिफल के कॉलम के हिसाब से रखने का विचार आया मसलन अभागा, बेचारा, पनौती आदि रखने की सोची लेकिन फिर लगा शायद मेरी असली दशा बताने से और गिडगिडाने से भी प्रकाशकों के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़े, एक बार तो लगा की कुंवारा रख लू , लेकिन फिर डर लगा कहीं श्रीमती जी मेरे कुंवारेपन की खाल उधेड़ कर घर निकाला नहीं दे दे और, फिर सोचा की कुंवारे लोगों के अपेक्षित गुणों को अपने नाम के आगे सजा लूँ,मसलन सुन्दर,सुशील,ग्रह कार्य में दक्ष, पत्निव्रता, मौन ,आदि ,लेकिन डर लगा की कही कोई दूसरी शादी का प्रस्ताव नहीं भेज दे और गलती से कही मैंने एक्सेप्ट कर लिया तो. फिर सोचा की पतिदेव ही रख लूँ,नाम से ही मेरी दशा या दुर्दशा का वास्तविक चित्रण हो जाएगा, लेकिन मुझे डर था की कहीं पत्नी प्रताड़ित पुरुष प्रधान संघ मेरे पीछे पड जाए की इस तरह पतियों की दशा दुर्दशा का सार्वजनीकरण नहीं सहन होगा !
फिर विचार आया की कॉलेज टाइम में मुझे जिस नाम से पुकारते थे, वो नाम रख लूँ यानी की एम् सी ,मेरे नाम के दो प्रथम लेटर एक प्रकार से एब्रीविएशन के रूप में, लेकिन फिर ये सोचकर कि नाम कुछ मेडिकल टर्मिनोलॉजी से मिलता जुलता है ,किसी निहायत ही निजी मासिक चक्र का इस तरह सार्वजनीकरण करना भी उचित नहीं , शायद उच्चारण में थोड़ा अजीब सा भी लगे तो ये विचार भी त्याग दिया, सच पूछो तो बचपन में नामकरण करने से पहले उसके एब्रीविएशन का विशेष ध्यान रखना चाहिए कई बार बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाती है, जैसे एक फेमस “देवेंद्र कुमार बॉस” का एब्रीविएशन “बॉस डी के” ने काफी बवाल मचाया था।
लेकिन फिर हमें एक उपनाम याद आया जो हम रख सकते थे और ये उपनाम था “भाई”, आजकल इस उपनाम के बड़े जलवे हैं, हर जगह भाइयों का बोलबाला है, भाईगिरी चल ही नहीं दौड़ रही है, नेतागिरी भी इसी भाईगिरी के बलबूते पर फल फूल रही हैं, देश में लूट-पाट, स्कैम, घोटाले सभी भाइयों के दम पर ही हो रहे हैं ! फिर क्यों न लेखकों को भी इस भाईगिरी का फायदा उठाना चाहिए ।” भाई” तखल्लुस आगे लगेगा तो प्रकाशक भी दहशत में आ जाएगा, लगेगा जैसे लेखक ने कनपटी पर बंदूक तान दी हो, प्रकाशक से मेहनताने का चेक भी टाइम पर आ जाएगा, रेज्यूम में भी एक अलग ही धोंस आ जाएगी, “भाई” तखल्लुस के साथ ही एक तमंचा जैसा अनुस्वार साथ में लगा देंगे तो और भी चार चाँद लग जाएंगे।” भाई “ही तो है जो दिन को कहे रात तो लोग रात कहेंगे, फिर कोई हमारी लेखनी पर उंगली नहीं उठाएगा, वैसे भी आजकल लोगों का पठन से मोहभंग हो गया है, लोग रील बनाने या रील देखने में ज्यादा व्यस्त हो गए है । लोगों का अटेंशन स्पान और धैर्य की सीमा भी मोबाइल के नेटवर्क की वैलिडिटी की तरह सिकुडती जा रही है ऐसे में कोई तो उपाय करना ही पड़ेगा ना ताकि लोग हमारी रचनाएं पढ़ सकें।
वैसे चलते-चलते पाठकों से मुफ्त की सलाह ले ही लेता हूँ कि आप भी कोई उपनाम मुझ सुझा दें ,हो सकता है मेरी साठिया गई बुद्धि नहीं सोच पा रही हो और आप ही इस समस्या का कोई सर्वसिद्ध हल निकाल कर दे दें।
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