शास्त्रीय संगीतकार च्यवनप्राश के विज्ञापन में नजर आ रहे हैं, कला का भी बाजार लग गया है। जब कला का मूल्य लग सकता है, तो कलाकार का क्यों नहीं? कला ,संस्कृति जहा देखने सुनने महसूस करने और अपने रूह को उन्नत करने के लिए थी,अब सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु हो गयी है.तालियाँ कला के प्रदर्शन पर नहीं कलाकार के अंगप्रदर्शन पर ज्यादा बजती हैं !
IPL मैच का सीजन चल रहा है। क्रिकेट की तो शुरू से मेरा ज्ञान बस सिर्फ फील्ड से बाहर गई गेंद को दौड़ दौड़ कर लाकर बॉलर को पकडाने तक सीमित है। कभी-कभार किसी पड़ोस के अंकल जी का शीशा टूट जाने पर मेरे साथी मेरा नाम ले देते थे.हमें भी इस बहाने यह झूठी तसल्ली मिल जाती थी की चलो पड़ोस के अंकल ही सही कोई तो मानता है कि गेंद हम भी मार सकते हैं, शीशा हम भी तोड़ सकते हैं।
क्रिकेट का बाजारीकरण भी देखा है, यह भी बाजारीकरण के दौर में अपनी जगह सेलिब्रिटी के तीसरे पेज पर बना चुका है। क्रिकेट गलियों से निकल कर बड़े-बड़े उद्योगपतियों की जेब में आ गया है। IPL शुरू होते ही मीडिया हाउस की चांदी होना शुरू हो जाती है, बड़े-बड़े होर्डिंग्स और विज्ञापन, IPL की बिडिंग से ही शुरू हो जाते हैं | गहमागहमी का माहोल है । हर जगह एक ही सुर सुनाई देता है- कौनसा खिलाड़ी कितने में बिका ? खिलाड़ियों के दामों की रकम,जो मोटे मोटे घोटालों की रकम की बराबरी करती हुई देखकर हमने बड़े अफ़सोस के साथ सोचा, सच में मैं भी बिकना चाहता हूँ, मुझे भी बिकना है। जब हर कोई आज के इस चमक-दमक वाले बाजार में, बिकने के लिए खड़ा है, कोई मेरा भी दाम लगाए। मगर मैं? मैं कहाँ जाऊं? कोई खरीदार हो तो सही, मेरे भी हिस्से की कीमत लगा दे। वैसे तो शादीशुदा हूँ तो पहले ही बिक चुका हूँ, शायद सेकंड हैंड माल को लेने के लिए तो कबाड़ी भी हाथ नहीं लगाए।
अब दो कौड़ी के आम आदमी की कीमत भला कौन दे सकता है। पढ़ के लिख के नवाब बनने के शौक में सब गोबर कर दिये हैं , इससे बढ़िया तो खेलकूद कर खराब हो लेते। आज हो सकता है कहीं जुगाड़ लगाकर फिट ही हो जाते चाहे एक्स्ट्रा प्लेयर के रूप में ही सही.जो काम बचपन में किया है वही कर लेते, मसलन रिटायर्ड हर्ट प्लेयर को स्ट्रेचर में ले जाने का, पानी-कोल्ड ड्रिंक पिलाने का, और शर्ट खोलकर अपने खिलाड़ियों को चीयर करने का। लाख-दो लाख तो बिड में हमें मिल ही जाते।
आज के दौर में हर कोई बिकना चाहता है, और हर कोई खरीदना चाहता है , हर कोई जरूरत और परिस्थियतियों के अनुसार खरीददार और बिकने वाला बन जाता है !हर कोई बिक भी सकता है बस परिस्थिति और ऊँची कीमत चाहिए।
गरीब मजदूर चौराहे पर गठरिया बाँधे एक आशा के साथ ढूंढ रहा है उन हाथों को जो उसे ले जाएं, ताकि शाम की रोटी का जुगाड़ हो जाए। उसे तो बेचने की कला भी नहीं आती। बाज़ार के पैतरों से अनभिज्ञ, एक निरीह, पथराई सी आँखें ढूंढ रही हैं बाबूजी को जो आज उसे मजदूरी देकर उसके सीमित सपनों का मसीहा बनेगा।
आज की युवा पीढ़ी भी बिकने के लिए तैयार है। चंद लाइक्स और कमेंट्स के लिए नग्नता के प्रदर्शन की सीमा से परे जाकर शर्म-ओ-हया सब बेच दी है | खिलाड़ी और कलाकार भी अपने आप को बेच रहे हैं। एक पहुँचे हुए शास्त्रीय संगीतकार जब च्यवनप्राश के विज्ञापन में खुद को बेचते नजर आए, तो लगा कि कला नहीं बिक रही तो क्या कलाकार तो बिक रहा है।
अब आम आदमी भी तो बिकता है न। हर पांच साल में, कुछ चंद नोटों की खातिर, एक दारू की बोतल के खातिर। हर कोई बिकने को तैयार है, लोकतंत्र के चार पिलर – न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता भी तो इस दौड़ में पीछे नहीं है .देश की अर्थ्व्यबस्था ही तो खरीद फरोख्त से चलती है न , जीडीपी के आंकड़े छू लेने की कवायद में लोकतंत्र को अर्थतंत्र में बदला जा रहा है .शायद असल मायने में लोक तंत्र को अर्थ दिया जा रहा है.
देखो, बिकने के लिए एक यूएसपी होना जरूरी है। आजकल के मोटिवेशनल स्पीकर भी तो अपने आपको बेचकर आपको बेचने के गुर सिखा रहे हैं। आदमी सामान नहीं, खुद को बेचता है। अब जिसकी यूएसपी अच्छे होंगे, वो अच्छे दाम में बिकेगा।
न्यायपालिका में तो वैसे ही न्याय को पत्थर की काली मूर्ती बनाकर उसकी आँखे काले कपड़े से बंद कर रखी हैं.अब पत्थर में संवेदना ढूंढोगे तो कहाँ से मिलेगी ! तराजू हाथ में है, बनाने वाले कलाकार ने तराजू भी बैलेंस कर दी है , इस पलड़े में रकम डालिए, दूसरे पलड़े में बरावर के वजनदार फैसला!
विधायिका भी अपनी रंगत बदलती गिरगिट जैसी खूबी लिए गेंडे जैसे मोटी खाल धारण किए हुए है .विधायिका भी पल्टू राम और मौकापरस्ती के मगरमच्छी आँसू लिए बस बिकने को तैयार है। नीतियाँ, सिद्धांत ये सब हवा और मौके के साथ बदलने की क्षमता रखते हैं। कार्यपालिका तो बिकने के लिए ही बनी है, इसकी कीमत लेकिन हर कोई अदा नहीं कर सकता। बड़े-बड़े उद्योगपति, कॉरपोरेट घरानों का ही बूता होता है इनके दाम लगाना।
पत्रकारिता भी हवा के साथ बहने के लिए तैयार है। जहाँ पत्रकारिता दीपक की तरह लोकतंत्र की आखिरी लौ थी, अब हवा के साथ बुझने को तत्पर है। दाम सही मिले तो कब किसकी हवा बना दे और किसकी हवा निकाल दे, सब आता है।
कई लेखकों ने इसी कारण वो लिखना शुरू कर दिया जो बिकता है।साहित्य की रेसिपी में अश्लीलता और फूहड़ता का छोंक लगाया जा रहा है, अब अच्छा साहित्य तो घर में बनाई बीबी के हाथ की स्वाद हीन दाल ही साबित हो रही है. सभी को बाजारू साहित्य का टंगड़ी कबाब ही पसंद है. सूना है ‘मस्तराम’ एक बहुत ही उम्दा लेखक था, उसकी रचनाएँ स्वाद हीन दाल ही साबित हो रही थी ,प्रकाशक ही नहीं मिल रहे थे ,जो कोई एक दो रहम कर के छाप भी देते थे ,वो दुबारा हाथ जोड़ लेते । हार के बेचारे ने वह लिखना शुरू किया जो सबकी मांग थी। देखते ही देखते उसके हजारों प्रशंसक हो गए, उसका रचा साहित्य अब अलमारियों की धूल फांकने की बजाय तकियों के नीचे करीने से सजाया जाने लगा।
शास्त्रीय संगीतकार च्यवनप्राश के विज्ञापन में नजर आ रहे हैं, कला का भी बाजार लग गया है। जब कला का मूल्य लग सकता है, तो कलाकार का क्यों नहीं? कला ,संस्कृति जहा देखने सुनने महसूस करने और अपने रूह को उन्नत करने के लिए थी,अब सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु हो गयी है.तालियाँ कला के प्रदर्शन पर नहीं कलाकार के अंगप्रदर्शन पर ज्यादा बजती हैं !
मैं भी बिकना चाहता हूँ, अपनी कीमत चाहता हूँ। कोई मुझे भी खरीद लो, ताकि मैं भी इस बिकने वाले संसार का हिस्सा बन सकूं।
एक कविता रचना यहाँ इस सन्दर्भ में इस लेख के साथ संलग्न करना चाहूँगा
बिकाऊ है जर जोरू और जमीन यहाँ ,
बिकाऊ है जिंदगी तो मौत भी ग़मगीन यहाँ ।
बिकाऊ रोशनी तो बिकाऊ अँधेरा भी है ,
बिकाऊ सुहानी शाम और सुनहरा सवेरा भी है !
बिकाऊ कलम और कागजात सरे आम यहाँ ।
बिकाऊ यह रास्ता, मंजिलें तमाम यहाँ !
बिकाऊ है आसमान, बिकाऊ दरिया की लहर भी ।
बिकाऊ यहाँ हर गाँव , चमकते शहर भी !
बिक तो जाएँ रूह तक,शरीर की बिसात क्या,
बिक जाएँ जमीर यहाँ, ईमान की बात क्या !
है सभी तैयार अपनी हद से पार जाने को,
इंतज़ार है बस, सही दाम लगाने को।
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