मेरे एक परिचित हैं, जो रेलवे के मेडिकल विभाग में कार्यरत हैं। हाल ही में उनसे वार्तालाप के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि उन्होंने अपनी कन्या का प्रवेश पोस्ट-ग्रेजुएशन में त्वचा विज्ञान (डर्मेटोलॉजी) में करवाया है। एक समय था जब पोस्ट-ग्रेजुएशन में बाल चिकित्सा और ऑर्थोपेडिक्स का प्रभुत्व था, रेडियोडायग्नोसिस तो वैसे भी सदैव शीर्ष शाखा रही है।परंतु अब, जिस प्रकार से रेडियोडायग्नोसिस में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आगमन का भय लोगों को सता रहा है, इसके भविष्य पर कुछ प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। किन्तु, शल्य चिकित्सा शाखाओं से जैसा मोहभंग हुआ है, उसे देखकर लगता है कि वास्तव में मेडिकल परिवेश में विचारधाराए नेरातिव में बड़े परिवर्तन आ चुके हैं। मेडिकल क्षेत्र में प्रैक्टिस के दौरान उत्तरदायित्वों (लायबिलिटी ) में तीव्रता से वृद्धि, चिकित्सकों के विरुद्ध उपभोक्ता कानूनी और आपराधिक मुकदमे की बढ़ती संख्या , अस्पतालों में हिंसा की घटनाएँ इसके लिए उत्तरदायी है | इससे मेडिकल क्षेत्र में अभिभावक और छात्र स्वयं बिना उत्तरदायित्व और कम जोखिम वाली शाखा का चयन करने लगे हैं।
मेरे पोस्ट-ग्रेजुएशन प्रशिक्षण के दौरान सर्जिकल ब्र्न्चेस का एक अलग जलवा था । मेडिकल विज्ञान के अध्ययन और प्रैक्टिस में जहाँ एक ओर गहराई और ज्ञान की आवश्यकता होती है, वहीं दूसरी ओर मेरे ओर्थो वार्ड के पास ही लगता हुआ सर्जिकल वार्ड था जहाँ ‘टांके लगाने’ और ‘टांके निकालने’ के महत्वपूर्ण कार्यों में रेजिडेंट सर्जिकल विभाग के अन्सुल्झे के रहस्य को खोजने की एक अद्वितीय यात्रा पर थे ।मेरे पोस्ट-ग्रेजुएशन प्रशिक्षण के दौरान मेरे पास के ही सर्जिकल वार्ड में एक रेजिडेंट जो मेरे समकक्ष बेच का था और अपनी ब्रांच को लेकर बड़ा उत्साहित । हम दोनों ही, मैं और मेरे समकालीन बेचमेट , पीजी हॉस्टल में सपरिवार निवास करते थे। दोनों ही ग्रामीण परिवेश से पले-बढ़े थे। शाम को घर जाते वक्त हमारी बातचीत का विषय बस यही होता था कि आज कितनी सीनियर्स की डांट पड़ी, कितनी भीड़ वार्ड में थी। ऑर्थोपेडिक्स में केवल दो यूनिट्स थीं, इसलिए हमारे पास काम बहुत था।इमरजेंसी कैजुअल्टी में हम सभी माइनर ऑपरेटिव प्रोसीजर कर लेते थे, क्योंकि सीनियर्स को फाइनल की परीक्षा की तैयारियों में खपना पड़ता और इमरजेंसी में तैनात सहायक प्रोफेसर को अपनी शाम की घर की opd से फुर्सत नहीं मिलती थी । इधर, हाउस सर्जन, सर्जरी में वार्ड ड्यूटी में ही तीन कामों में अपना समय व्यतीत करता था: टट्टी, पट्टी, और छुट्टी। जी हां सर्जन की वार्ड ड्यूटी में ये तीन महत्वपूर्ण फेज के निर्वहन में अपना पूरा समय खप जाता. सर्जरी में कोई मरीज भर्ती होता है तो सबसे पहले दो-तीन दिन के बाद जो समस्या आती है वो कब्ज की। इस समस्या से परेशान मरीज वार्ड में बस एक ही रट लगाए रहता “डॉक्टर साहब, टट्टी नहीं आ रही”। वार्ड के सभी मरीज पेट को पकड़े वेदनाग्रस्त चेहरे से हाउस सर्जन को तट्टी करवाने की गुहार लगाते रहते और रेजिडेंट बेचारा भाग-भाग कर एनिमा की बोतल हाथ में पकड़े उनको मल-मूत्र विसर्जन करवाता रहता।चार-पाँच दिन के बाद एक नई समस्या आम रूप से सभी भर्ती मरीजों के मुख मंडल से मुखरित होती, “ये थी पट्टी। साहब पट्टी नहीं हुई”। हाउस सर्जन का काम दिन भर इन मरीजों की बदबूदार पट्टियां हटाकर मवाद निकलने और ड्रेसिंग गेज लगाकर पट्टी बाँधने में लगा रहता |फिर जब टांके निकालने का समय आता, तो वह भी एक आयोजन सा होता था। जिस रेजिडेंट को यह कार्य मिलता, उसके आसपास लेक्चरर और सीनियर्स की भीड़ लग जाती, उचित लिखित और प्रोटोकोल से बिना विचलित निर्देशन में टांके निकालने की प्रक्रिया पूरी होती और यथासंभव टांके निकालने पर रेजिडेंट को बधाई मिलती। रेजिडेंट भी उस दिन अपना अर्धमिशन पूरा होने पर गौरवान्वित होता, आधा मिशन जो अब पूरे रेजीडेंसी में करना था वो टांके लगाने का था बस। इधर टांके निकलते उधर मरीज की नई शिकायत का रोदन शुरू हो जाता, और यह शिकायत छुट्टी की होती “साहब छुट्टी दे दो”। साहब बड़े साहब से कह कर छुट्टी दे दो | और एक दिन बड़े साहब मरीज के पास राउंड के वक्त घोषणा कर ही देते की इस मरीज की छुट्टी कर दी जाए,मरीज को ऐसा लगता की बस जेल से छूट गया ,मरीज के परिजन राउंड के तुरंत बाद जेल से छूट के कागजात जैसे डिस्चार्ज कार्ड को बनवाने रेजिडेंट को घेर लेते और उसे सब काम को टाक पे रखकर पहले मरीज को छुट्टी का कार्ड बनान पड़ता ही.
इन टट्टी, पट्टी, और छुट्टी की प्रक्रियाओं के भँवरजाल में फंसी यह दुखी आत्मा एक बार बड़ी खुशी से बोली, “मैंने पूछा क्या हुआ भाई, आज तेरी कौन सी लॉटरी लग गई?” उसने उत्तर दिया, “भाई, आज तो पार्टी है, डिपार्टमेंट में मेरी तरफ से।” मैंने पूछा, “कौन सी पार्टी भाई?” उसने कहा, “यार, पता है आज HOD ने मुझ पर मेहरबानी करके, मेरे काम से खुश होकर मुझे OT में बुलाकर दो टांके लगाने को दिए।”मैं मन ही मन सोच रहा था, यार सर्जरी विभाग तो बड़ा खर्चीला है, भाई! टांके लगवाने की भी पार्टी ले लेता है। यहाँ तो बड़े ऑपरेशन करने पर सामने की दुकान से बीकानेर की प्रसिद्ध छोटी कचौड़ी और OT में ही बनी चाय की पार्टी से काम चल जाता है और पार्टी भी OT के वेन्यू स्थल के डॉक्टर्स चैम्बर में हो जाती थी।OT की चाय भी बड़ी स्पेशल थी, जो वहीं OT के सफाईकर्मी बनाता था और उसे बड़े प्यार से कपों में छानकर हमें परोसता था। OT का एक वार्ड बॉय, बुजुर्ग सा आदमी जिसे हम OT के HOD जैसा ही सम्मान देते थे क्योंकि वह साहब का खास आदमी था और हमारी PR वही भरता था, और कब हमारी PR खराब कर दे पता ही नहीं चलता इसलिए उस से बड़ी अदब से पेश आते थे। उसका रवैया भी ऐसा ही था जैसे की कहा रहा हो तुम जैसे न जाने कितने हड्डियों के डॉक्टर बनाकर भेज चुका हु तुम किस खेत की मूली हो |
खैर पि जी अध्यन का समय ऐसा समय होता है जब आपको हॉस्पिटल स्टाफ के छोटे से छोटे वर्कर से भी एक सामंजस्य सोहाद्र्पूर्ण व्यबहार रखना पड़ता था ये जादू की झप्पी जो मुन्ना भाई MBBS में देखने को मिली ये आपकी निहायत ही मजबूरी भरी पहल थी आपके कैरिएर की गाडी को निर्बाध कलह विहीन चलाने के लिए.