रातें क्यूं है सोई सोई
दिन की धूप भी है खोई खोई
क्या हुआ ये , कैसा है मंजर
हाथों से छूटा, मानव का खंजर
इस खंजर से वो, प्रकृति को नोचता था
स्वार्थ में हो अन्धा, कुछ न सोचता था
पक्षी उन्मुक्त हो, कैसे चहचहाए
हवाएं भी सुगन्धित होकर गुनगुनाएं
जलचर उभयचर सागर तट पर आए
नदियां उजली हुई जैसे स्वयं नहाएं
मानव पर संकट के बादल छाए
पर प्रकृति की सांस में सांस अब आए
जल, थल, नभ , हवा सबका, मैल हटा अब
प्रकृति खिल उठी, मानव बन्द हुआ तब
अब बैठे हैं खाली तो क्यूं न करें चिन्तन
मानव और प्रकृति खिल उठे संग में
आओ मिलकर करें इस पर मंथन।
– सुनीता मृदुल
Vow !!! Sunitaji very thoughtful lines
Thank you
Very well written Sunita ji
Thank you
Well said ….so nice poetry
Thank you