जो माताएँ अपने बच्चों को स्तनपान कराती हैं अथवा जो माताएँ ऊपर का दूध पिलाती हैं, क्या दोनों में बच्चे के प्रति भावनात्मक लगाव एक सा होता है ? जो बच्चा माँ के आँचल में ढँका, वक्ष पर अपनी नन्हीं हथेली रख, नथुनों से माँ की गन्ध सूँघता स्तनपान करता है, और जिस बच्चे को चम्मच से या बोतल से दूध पिलाया जाता है, क्या दोनों की भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ एक सी होती हैं? क्या स्तनपान मात्र पोषण प्रक्रिया है? क्या स्तन, दुग्ध उत्पादक यन्त्र या मशीन मात्र हैं?
स्तन, स्त्रीत्व और नारी का प्रमुख अंग होते हैं। यह सौन्दर्य के प्रतीक मात्र नहीं। गर्भ में शिशु माता से नाभि-नाल और आँवल से जुडा़ रहता है, उसी से उसका जीवन निर्वाह होता है। प्रसवोपरान्त जब नाभि-नाल का रिश्ता खत्म हो जाता है तब शिशु को जीवित रहने के लिए स्तन से जुडना होता है। प्रसव पूर्व, गर्भावस्था के दौरान ही स्तन उसके लिए तैयार हो जाते हैं। वे शिशु के लिए नाभि-नाल का विस्तार मात्र होते हैं। जीवित रहने के लिए शिशु को जो पौष्टिक तत्त्व गर्भ में नाभि-नाल से मिलते थे, वे ही प्रसवोपरान्त स्तन से मिलते रहते हैं। आदिकाल में जब ऊपर का दूध उपलब्ध नहीं था तब सन्तति के जीवित रहने का एक मात्र सम्बल स्तनपान ही था। स्तन मातृत्व का वह केन्द्र है जहाँ विलक्षण रसायन प्रक्रिया के फलस्वरूप रक्त से दूध का उत्पादन होता है। गर्भ में माँ शिशु को रक्त से सींचती है, प्रसवोपरान्त रक्त जनित दूध से।
स्तन पान और ऋतुचक्र – आदिकाल में महिलाओं में स्तन लगभग निरन्तर दूध बनाते रहते थे। बच्चा बड़ा होकर, और कुछ खाने लायक होता था तब तक दूसरा गर्भ ठहर जाता था। ऋतुस्राव होता ही नहीं था। प्रकृति में मासिक धर्म, ऋृतुस्राव, नियम नहीं अपवाद था। अब जीवनशैली बदल गई है।
स्तन विकास – स्त्रीत्व का प्रमुख केन्द्र डिम्बग्रन्थि (ओवरी) अपना कार्य शुरू करती है तो वह एस्ट्रोजन (स्त्रीमद प्रेरक) ओर प्रोजेस्टेरोन (गर्भ प्रेरक) नामक दो हार्मोन बनाती है जो गर्भ पूर्व, गर्भ की अपेक्षा में, हर माह गर्भाशय की आन्तरिक झिल्ली, एण्डोमेट्रियम में बदलाव लाते हैं। गर्भ की असफलता में ऋृतुस्राव, एण्डोमेट्रियम से ही होता है। इन हार्मोनों का स्राव डिम्बग्रन्थि में हर माह एक डिम्ब (स्त्री बीज) के परिपक्व होकर क्षरण से जुड़ा होता है। अतः डिम्ब परिपक्व करने के साथ-साथ ग्रन्थि अन्तःस्राव द्वारा गर्भाशय को भी गर्भ स्थापना के लिए तैयार करती है। स्त्रीत्व का आधार यही है।
लेकिन एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित करते हैं, जिनमें प्रमुख होते हैं स्तन। इन हार्मोनों से प्रेरणा पाकर स्तन में स्थित दुग्ध नलियाँ, शाखा और उपशाखाओं में विभाजित करती जाती हैं और उनके अन्त सिरे पर अंगूर के गुच्छे सी दुग्धजनक ग्रन्थियाँ उग आती हैं। साथ ही स्तनों में वसा जमा होती जाती है, और स्तन में उभार आ जाता है। स्तन, स्त्रीत्व का बाहरी प्रतीक बन कर उभरते हैं। हार्मोन मस्तिष्क के उन भागों को भी प्रभावित करते हैं जो सन्तति उत्पत्ति और यौन क्रिया के चेतन और अवचेतन भाव पक्ष से जुडे़ होते हैं। जहाँ इन क्रियाओं की सभी स्मृतियाँ रहती हैं और जहाँ इनसे जुडी़ सुखद अनुभूतियाँ होती हैं।
दुग्ध उत्पादन – गर्भ ठहरने पर जब डिम्बग्रन्थि में डिम्बक्रिया रुक जाती है, तब बच्चे का ऑंवल (प्लैसेन्टा) एस्टाªेजन और प्रोजेस्टेरोन हार्मोन बनाता है और स्तन को पूर्ण विकास की ओर ले जाता है। इन हार्मोनों से प्रेरित माँ की पीयूष ग्रन्थि दुग्ध जनक प्रोलैक्टिन (दुग्धप्रेरक) हार्मोन स्रावित करती है, जो स्तन में दूध का उत्पादन करता है। प्रसवोपरान्त इस हार्मोन का उत्पादन चरम सीमा पर होता है। इस हार्मोन के प्रभाव से ही स्तन की ग्रन्थियाँ रक्त से सभी तत्त्वों को चुनती हैं और उन्हें दूध में परिवर्तित करती हैं। रक्त का दूध में परिवर्तन स्तन की विलक्षण प्रक्रिया है, ममत्व और वात्सल्य का अवचेतन आधार।
कोलोस्ट्रम (खीस) – प्रसवोपरान्त पहले दो-तीन दिन जो दूध आता है वह भी प्रकृति का विलक्षण प्रावधान होता है। इसमें पोषक तत्त्व नहीं होते। अतः इस दौरान बच्चे का वजन गिरता है। जिससे माता को चिन्ता होती है। बच्चे की आँतों में जमा लिसलिसा मल होता है। पहले दूध में वे रसायन होते हैं, जो इस मल को बाहर निकाल देते हैं। आँत साफ़ हो जाती है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष इस पहले दूध का होता है – बच्चे को रक्षात्मक तत्त्व प्रदान करना। गर्भ के सुरक्षित वातावरण से बाहर आने पर वातावरण में स्थित रोगाणुओं से बच्चे को ख़तरा होता है। बच्चे का अपना रक्षा संस्थान विकसित होकर कार्य करना शुरु करे, तब तक माँ के पहले दूध में स्थित प्रतिरक्षा तत्त्व बच्चे को उन रोगाणुओं से बचाते हैं। तदुपरान्त दूध में पोषक तत्त्व आ जाते हैं जो क्रमशः बढ़ते जाते हैं।
माँ के दूध में लैक्टोफ़ॉर्मिन नामक तत्त्व होता है जो बच्चे की आँत में लोह तत्त्व को बाँध लेता है, और लोह तत्त्व के अभाव में शिशु की आँत में रोगाणु पनप नहीं पाते। माँ के दूध से आए साधारण जीवाणु बच्चे की आँत में पनपते हैं और वे रोगाणुओं से प्रतिस्पर्धा कर उन्हें पनपने नहीं देते। माँ के दूध में रोगाणुनाशक तत्त्व होते हैं। वातावरण से माँं की आँत में पहुँचे रोगाणु, आँत में स्थित विशेष भाग के सम्पर्क में आते हैं जो उन रोगाणु-विशेष के खिलाफ़ प्रतिरोधात्मक तत्त्व बनाते हैं। ये तत्त्व एक विशेष नलिका – थोरासिक डक्ट – द्वारा सीधे माँ के स्तन तक पहुँचते हैं और दूध द्वारा बच्चे के पेट में।
दुग्ध प्रवाह – दूध का बनना तो प्रोलैक्टिन पर निर्भर करता है लेकिन इसका प्रवाह नहीं। दूध प्रवाह की प्रक्रिया एक अन्य आन्तरिक रासायनिक क्रिया से होती है जो स्तनपान की सुखद एवं भावनात्मक अनुभूति से जुड़ी होती है। बच्चे के होंठों के सुखद कोमल स्पर्श की अनुभूति से प्रेरित तरगें हाइपोथैलेमस और पीयूष ग्रन्थि को पहुँचती है और ऑक्सीटोसीन नामक दुग्ध प्रवाहक हार्मोन स्रवित करती है जो दुग्धजनक ग्रन्थियों और दुग्धवाहक नलिकाओं के चारों ओर स्थित सूक्ष्म मॉंसपेशियों का संकुचन कर दुग्ध प्रवाहित करता है।
ममत्व – इस भावप्रक्रिया में अन्तःस्रावी हार्मोनों से प्रेरित चेतन और अवचेतन में माँ की कोमल भावनात्मक क्रियाएँ जुड़ी होती हैं। दूध पीने को जितना आतुर बच्चा होता है उससे कहीं ज़्यादा आतुर, दूध पिलाने को माँ होती है, जिसे पावसना कहते हैं। बच्चे की याद में स्तन से झरता दूध इसका प्रतीक है। स्तनपान से दूध का रिश्ता बनता है, माँ के दीर्घकालीन लगाव का मूल। इन भावनात्मक स्मृतियों और कोमल भावनात्मक प्रक्रियाओं का केन्द्र होता है चक्रिल मस्तिष्क (लिम्बिक लोब) न कि चेतन और बौद्धिक मस्तिष्क (सेरेब्रम)।
जीवन रक्षक स्तनपानःनए जन्मे बच्चे में रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं होती। वातावरण में व्याप्त विषाणुओं के सम्पर्क में आने पर ही हर विशिष्ट रोगाणु और विषाणु के लिए बालक का रक्षा संस्थान प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल करेगा। जब तक यह हो तब तक आवश्यक है कि ये प्रतिरोधात्मक तत्त्व शिशु को माता से मिलंे। ये माता के दूध से मिलते हैं और बालक के नाज़ुक प्रारम्भिक जीवन में उसकी रक्षा करते हैं।