ह्यूमर हाइपोथीसिस – आंतरिक द्रव-विकार परिकल्पना। हिप्पोक्रेटस की आदि काल की शरीर के अंदर 4 द्रव की परिकल्पना को, पांच शताब्दि बाद, ग्रीक चिकित्सक गेलेन ने प्रतिपादित किया। गेलेन ने इन्हे कार्डिनल फ्लूइड्स – मुख्य आधार- द्रव की संज्ञा दी। इस परिकल्पना के अनुसार शरीर में 4 द्रव लाल, सफेद, पीला, और काला होते थे। इन्ही के असंतुलन से, कम और अधिक होने से, रोग होते थे। इनफ्लेमेशन -शोथ – जिसमें लालिमा, सूजन, तप्तता और पीड़ा होती है, को लाल द्रव (रक्त) की अधिकता से होना माना गया। टी बी की गांठ, नजला, फोड़े-फुन्सी और लिम्फग्रथियो की ठन्डी सूजन को फ्लेग्म (कफ) के अधिक होने से माना गया। जोन्डिस – पीलिया – को यलो बाइल (पीला पित्त) की बहुतायत से और कैंसर की गांठों को ब्लेक बाइल (काले पित्त) की बहुतायत घनीभूत होना ही कैंसर था। यह आंतरिक काले पित्त की विकृति का एक लाक्षणिक प्रतीक था। कैंसर की गांठ को निकालने से आंतरिक विकार ठीक नहीं हो सकता, ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। हां काले पित्त का शमन करने के लिए अनेक ‘औषधियां’ दी जाती थी, जैसे जानवरो के सींग, नख और अंगों से बने शोरबा और लोशन, मलहम; दस्तावर दवाइयां; आर्सनिक, सीसा और अफीम के टिंक्चर आदि। 1533 में एन्ड्रियेज वेसेलिअस नाम का 19 वर्ष का युवक पेरिस विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया। वह गेलेन की चलाइ हुई एनाटोमी – शरीर रचना – पढ़ना चाहता था। इसके लिए शवविच्छेदन अनिवार्य प्रक्रिया थी। लेकिन शवविच्छेदन के लिए यहां न उचित स्थान था न व्यवस्था। कालेज के बेसमेंट में खुले में गले-सड़े कुछ मुर्दे पड़े रहते थे। असंतुष्ट वेसेलिअस ने खुद शवविच्छेदन करने की ठानी। मुर्दो के लिए वे कब्रिस्तान गये। वहां खुली कबरो में उन्हें कंकाल मिले। पास ही एक स्थान मिला जहां पर अपराधियों का गले से लटका कर फांसी दी जाती थी और उन्हे लटका छोड दिया जाता था। वेसेलिअस इन मुर्दों को काट काट कर ले जाते और फिर कालेज के कमरे में बैठ कर उनका विच्छेदन करते और उनको चित्रित करते। उन्होंने हडिडयां, मांसपेशियां, धमनियां, शिराएं, लिम्फवाहरनयां, नर्वज आदि का विधिवत अध्ययन किया और उनके चित्र और नक्शे बनाये। उन्हे रक्त वाहनियों में लाल रक्त, लिम्फ वाहनियो सफेद तरल और पित्त की थेली में पीला पित्त मिला लेकिन उनको गेलेन द्वारा प्रतिपादित काला पित्त कहीं नही मिला। वे गेलेन के भक्त थे अतः उन्होंने इस बारे में गेलेन का न खंडन किया न इस बारे कुछ लिखा। 1793 में लंडन के मैथ्यू बेली ने रोग से विकृत हुए अंगों का विच्छेदन कर किताब लिखी। जहां वेसेलिअस ने नॉर्मल एनाटोमी – सामान्य शरीर रचना – का अध्ययन और चित्रण किया था वहीं बेली ने पेथोलॉजिकल एनाटोमी – विकृत संरचना – का अध्ययन और चित्रण। उन्होंने फेफड़े, आमाशय, वृषण आदि अनेक कैंसर का विच्छेदन-अध्ययन किया। उन्हे उनमें कहीं भी घनीभूत हुआ काला पित्त नहीं मिला। हो सकता है वेसेलिअस को सामान्य शरीर में यह न दिखा हो, लेकिन कैंसर गांठों में तो घनीभूत हुआ काल पित्त दिखना चाहिए था। इसका मतलब था काला पित्त जैसा कोई द्रव शरीर में नही होता। अतः काले पित्त से कैंसर होने की परिकल्पना गलत सिद्ध हुई। कैंसर होने का कारण कुछ और ही था। बाहरी कैंसर कारक तत्व परिकल्पना – सोमेटिक म्यूटेशन हाइपोथिसिसः 1920 में कैंसर का होना बाहरी कैंसर कारक तत्वों के कुप्रभाव से ही होना माना जाता था। रेडियम से मेरी क्यूरी को रक्त कैंसर हुआ था। अठारवी सदी के अंत में परसीवल्ल पोट के कार्य ने यह सिद्ध कर दिया था कि चिमनी की कालिख साफ करने वाले बच्चों में फोते का कैंसर चिमनी की कालिख में निहित कैंसर कारक तत्वों के प्रभाव से होता है। वेसेलिअस और बेली ने यह पहले ही सिद्ध कर दिया था कि कैंसर काले पित्त के विकार से नहीं होता, क्योंकि काला पित्त जैसा कोई द्रव शरीर होता ही नहीं। बाहरी तत्वों – चिमनी की कालिख, रेडियम, ओर्गेनिक केमिकल, रंजक – के कैंसर कारक होने के साक्ष्य सामने आये। कैंसर आंतरिक विकार से नहीं बाहरी कैंसर कारक तत्वों के प्रभाव से होता है तो उसे रोका भी जा सकता है। लेकिन सवाल यह था कि कालिख, रसायन, रेडियम, इतने विभिन्न प्रकार के तत्व सभी कैंसर करते कैसे हैं? वैज्ञानिको ने इसके लिए नई परिकल्पना, सोमेटिक म्यूटेशन हाइपोथिसिस, प्रतिपादित की। इस परिकल्पना के अनुसार कैंसर कारक सभी बाहरी तत्व शरीर की साधारण कोशिका की आंतरिक जीन संरचना में ऐसे विकार (म्यूटेशन) करते हैं कि साधारण कोशिका कैंसर कोशिका में परिवर्तित हो जाती है। हर प्रकार का कैंसर सोमेटिक म्यूटेशन से विकृत हुई कैंसर कोशिका से जन्मता है। वाईरल हाइपोथिसिस – विषाणु जनित कैंसर परिकल्पनाः जब पक्षियों और जानवरों में वाइरस से कैंसर होना पाया गया तो बाहरी तत्वों से सोमेटिक म्यूटेशन से कैंसर होने की परिकल्पना को बड़ा झटका लगा। वाइरस से कैंसर होने मतलब था एक कारण, एक रोग। हर प्रकार के कैंसर का एक ही कारण, वायरस। अनुसंधान के लिए करोड़ों खर्च किए गये। हर कैंसर की गांठ से वायरस को अलग करने की चेष्टा की गई। लेकिन वायरस होते तो मिलते। कुछ मानव कैंसर में विषाणु अवश्य चिन्हित हुए। केवल विशेष प्रकार के कैंसर ही विषाणु जनित थे। अधिकांश में उन तंतुओं में कैंसर हुआ जो लम्बे समय से विषाणु संक्रमित थे। जैसे एप्सटन बार वायरस से गले की ग्रंथियो का कैंसर, हेपेटाइटिस बी और सी वायरस से लिवर का कैंसर और पेपिलोमा वायरस से गर्भाशय-ग्रीवा का कैंसर। तब वायरस को भी अन्य कैंसर कारक तत्वों की तरह एक माना गया। दीर्घकालिक विषाणु जनित शोथ (इनफलेमेशन) से कैंसर होता है। शोथ प्रक्रिया में रत कोशिकायें ही विकृत हो कर कैंसर हो जाती है। वायरस कैंसर का एक मात्र कारण नहीं थे। जीन म्यूटेशन हाइपोथिसिस – जीन विकृति परिकल्पना ।श्शरीर की हर कोशिका (रक्त के लाल कणों को छोड़ कर) के अन्दर एक कंेन्द्रक होता है। इस केन्द्रक के गुणसूत्रों पर स्थित जीन द्वारा ही कोशिका की सारी जैविक प्रक्रियाएं संचालित होती हैं। हर जीन, जो एक विशिष्ट डी एन ए योगिक का बना होता है, एक विशिष्ट प्रकार की प्रोटीन बनाता है। जीन निर्मित यह प्रोटीन कोशिका की विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं को संचालित और नियंत्रित करती हैं। इनमें से कुछ जीन, विभाजित होने वाली कोशिकाओं में, विभाजन के लिए आवश्यक संवर्द्धन प्रक्रिया को संचालित करते है। विभाजन को उचित समय पर रोकने और विभाजित कोशिका को प्रायोजित लक्ष्य कर्म के लिए नियोजित करते हैं। शरीर की उन कोशिकाओं में जो अब विभाजित नहीं होती, जैसे मस्तिष्क की, मांसपेशियों की आदि, उनमें विभाजन को प्रेरित, नियंत्रित और नियमित करने वाले जीन सुशुप्त अवस्था में होते है – संवर्द्धन प्रेरक और संवर्द्धन रोधक दोनो प्रकार के जीन। कैंसर कारक तत्वों के प्रभाव से कोशिका के इन जीन में विकृतियां आजाती है। तब यह जीन कैंसर कारक जीन बन जाते हैं। स्थाई कोशिका विभाजित होने लगती है और विभाजित होने वाली कोशिका में विभाजन पर से नियंत्रण खत्म हो जाता है। सामान्य जीन के म्यूटेशन से विकृत हो कर कैंसर कारक जीन में परिवर्तन होने की परिकल्पना ही आज की मान्य कैंसर कारक परिकल्पना है। किसी भी तत्व को कैंसर कारक मानने से पहले, प्रयोगो से यह सिद्ध करना होता है कि तत्व कोशिका में म्यूटेशन कर सकता है। साधारण जैविक प्रयोगशाला में संभव, ऐम्स टैस्ट, इसकी एक सरल विधि है। किस प्रकार के कैंसर में कौन कौनसे जीन में क्या क्या विकृति होती ह,ै और उससे कोशिका की कौनसी रासायनिक प्रक्रिया प्रेरित या बाधित होती है, आज यह भी पहचानी जा सकती है। कैंसर की लक्ष्य परक टार्गेट थेरेपी का आधार यही है। स्टेम सैल हाइपोथिसिस – स्टेम सैल परिकल्पनाः निशेचन (फर्टिलाइजेशन) के बाद युग्म (फर्टिलाइज्ड ओवम) के विभाजन से बनने वाली प्रथम कुछ कोशिकाएं इस मायने में टोटीपोटेन्ट (सर्वसक्ष्म) होती हैं कि अगर उनको अलग किया जाय तो प्रत्येक ऐसी आदि कोशिका से पूरा भ्रूण विकसित हो सकता है। तदोपरांत विभाजन से यह कोशिकाएं बहुसक्षम या बहुउद्देशीय इस मायने में हो ती है कि इनसे पूरा भ्रूण तो नहीं, एक अंग या एक ऊतक अवश्य बन सकता है। चरणबद्ध विभाजन से आखिर में यह क्षमता एकउद्देशीय ही रह जाती है और उस कोशिका से मात्र एक ही प्रकार की कोशिकाएं बन सकती है। उत्पति की इस प्रक्रिया को डिफरेन्सियेशन (पृथ्थकरण) कहते है। पूर्ण विकसित मानव शरीर में ऐसी कुछ बहुसक्षम या बहुउद्देशीय कोशिकायें होती हैं। इन्हे स्टेम सैल कहते हैं। यह कई प्रकार की कोशिकाओं को जन्म देने वाली पूर्वज या आदि कोशिकाएं होती है। जैसे अस्थि मज्जा में स्थित स्टेम कोशिकाएं जो रक्त की सभी लाल, सफेद और बिंबाणु कोशिकाओं का जन्म देती है। और जिससे कि यह सिलसिला जीवन प्रयत्न चलता रहे, ये कोशिकाएं अपना पुनःनिर्माण कर अपनी जैंसी कोशिका भी बना सकती है। स्टेम कोशिकाएं शरीर के अन्य भागों में भी होती हैं। यह सुशुप्त अवस्था में रहती है और उचित संकेत या उद्दीपक (स्टिमुलस) आने पर ही सचेत होती हैं। कैंसर के स्टेम सैल की परिकल्पना के अनुसार कैंसर का उद्गम इन स्टेम सैल में हए कैंसर कारक म्यूटेशन से होता है। ऐसा म्यूटेशन होने पर यह अपने परिवेश से कट कर शरीर में जहां भी जायेगी कैंसर को जन्म देगी। बहुउद्देशीय स्टेम सैल विभिन्न प्रकार के कैंसर को जन्म दे सकता है।