चिकित्सकों का इलाज विश्वास पर आधारित हो या कटु अनुभवों पर?
Consumer Protection Act (CPA) 2019 लागू हो गया है। जहां तक स्वास्थ्य सेवाओं के इसमे सम्मलित होने का प्रश्न है, तो उसपर दो मत हैं। जहां एक मत के तरफदार यह मानकर खुशी जताने का ‘ढोंग’ करते प्रतीत होते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं इस अधिनियम की परिधि से बाहर हो गयी हैं, वहीं दूसरा विपरीत मत स्वास्थ्यकर्मियों को इस संदर्भ में आगाह करने का भरसक प्रयास करता दिखता है।
बहरहाल, वर्ष 1986 के CPA में स्वास्थ्य सेवा इस अधिनियम में शामिल नहीं थी, परंतु साल 1995 में सर्वोच्च न्यायलय श्री ने अपने एक निर्णय में, बिना की अधिनियम की आवश्यकता के, स्वास्थ्यसेवा प्रदाता को एक service provider और मरीज को एक consumer अर्थात ग्राहक माना। उस दिन से असंतुष्ट मरीजों के चिकित्सकों और अस्पतालों के खिलाफ क्षतिपूर्ति और मुआवज़े के वाद consumer forums में बढ़ने लगे। सच पूछें तो सर्वोच्च न्यायलय के उक्त निर्णय का जहां कुछ वास्तविक प्रताड़ित मरीज़ों को फायदा मिला, वहीं चिकित्सकों के खिलाफ कई झूठे वाद दायर होने से, चिकित्सकों और मरीजों के विश्वास का रिश्ता टूटता चला गया। झूठे वादों और बड़े हर्ज़ानों की आशंका से सहमे चिकित्सकों ने, अपनी सुरक्षा की दृष्टि से, मरीजों और उनके रिश्तेदारों पर विश्वास के आधार पर इलाज़ करना लगभग बंद सा कर दिया…….नतीजा यह हुआ कि मजबूरन मरीजों की अधिक जांचें होने लगी और मूल आवश्यता से अधिक दवाइयों का उपयोग भी होने लगा, जिससे देखते ही देखते उनके इलाज का खर्चा बढ़ने लगा।
अब नए CPA 2019 में नवीन प्रावधान जोड़े गए है। अब असंतुष्ट मरीज़ अपने रहवास के किसी भी स्थान से चिकित्सक पर झूठे-सच्चे लापरवाही व हर्जाने के वाद कर सकता है। इसका परिणाम संभवतः यह होगा कि बड़े शहरों के सुविधासंपन्न अस्पताल, अन्य जिलों और राज्यों से आये मरीजों का इलाज करने से मना करने लगेंगे…..क्या पता दिल्ली, मुम्बई या चेन्नई के किसी विशेषज्ञ चिकित्सक को बाड़मेर, जबलपुर, सिलीगुड़ी या गया के किस जिले के District Consumer Commission में पेशियों पर चक्कर काटने पड़ जाएं।
नीति-निर्धारक ऐसे प्रावधानों से मरीजों की दिक्कतें कम कर रहे हैं या बढ़ा रहे हैं, यह जरूर तर्क-वितर्क का विषय है, परंतु यह बात तय है कि इनसे देश की स्वास्थ्य सेवाएं विश्वास पर आधारित न होकर कटु-अनुभवों पर आधारित होने लगेगीं।
जय श्री विठ्ठल।।