मार्क साल्जमन ने लाईंग अवेक नामक पुस्तक में एक ऐसे ही ‘मानसिक’ रोगी की आत्म कथा लिखी है जो पाठक का रोगी के अनुभूत सामाजिक, मानसिक और अध्यात्मिक सरोकारों से साक्षातकार करवाती है।
सिस्टर जोह्न कार्मेलाइट केथोलिक धर्म के एक आश्रम (कॉन्वेन्ट) मे साध्वी (नन) थी। अमेरिका के लासएन्जिलिस के पास स्थित यह कॉन्वेन्ट बृम्हकुमारियों के आश्रम जैसा था। लेकिन यहां की आचार संहिता बड़ी सख्त थी। मूल भूत रहने खाने पीने की सुविधा। सब काम स्वयं को करना। रेडियो, टेलीविजन कुछ नहीं। न बाहर के किसी की आमो दरफ्त। पूजा, प्रार्थना, ईश भक्ति को सर्वथा समर्पित एकाकी जीवन। आश्रम के 13 साल के सात्विक जीवन के बाद भी उनका जीवन सुश्क ही था, कोई आध्यात्मिक अनुभूति या उपलब्धी उन्हे नहीं हुई थी। रोज की वही प्रार्थनाए, वही भजन और आश्रम के नियत कार्य, यांत्रिक भाव से किए नीरस कर्म लगते थे। उन्हें लगता जैसे वे एक आध्यात्मिकि मरुस्थल में जी रही है। उनके शब्दों में ‘‘लगता जैसे हृदय को निचोड़ कर खाली कर दिया है। ईश कृपा की प्यास और आश के अलावा कुछ भी नहीं है उनके पास, सब रिक्त। बेसुर में गाये जॉर्जिया के लोकगीत, विलाप लगते। हाथ पांव पीड़ाते, पीठ दुखती और भूख सताती। दैनिक सामुहिक गान और धर्म अनुष्ठान करते लगता मरुस्थल में यात्रा पर हैं। आत्म शांति मिरिचका सी कोंधती और विलुप्त हो जाती। कहीं कोई छांव नही, आश्रय नहीं, जल नहीं।’’ तेरह साल के आश्राम जीवन के बाद यह थी सिस्टर जोह्न की घुटन भरी मनःस्थिति।
हटात सब कुछ बदल गया। उन्हे रहस्यमय रूप से आनन्द मग्न कर देने वाले अनुभव होने लगे। इन रहस्यमय अनुभवों की शुरुआत हुई एक दिन जब वो पानी का जग सिंक में खाली कर रही थीं। सर्पिल गति से घूम कर बेसिन के पेंदे में जाते पानी को देख कर उनका सिर घूमने लगा। उन्हें अपने अंदर आनन्द की लहर महसूस हुई, वेगवति, ऊपर उठती, उद्वेलित करती, आनन्द की लहर, जिसे शरीर रोक ही नहीं पा रहा था। संसार और शरीर के बन्धनों से मुक्त वे दिव्य ज्योति में समा गईं, बृम्हलीन हो गईं। ऐसा उन्होंने खुद बताया। ऐसा बार बार हुआ, तीन साल तक। जब भी ऐसा होता उन्हे अपने विचार लिख कर अभिव्यक्त करने की व्यग्रता होती, वे लिखने बैठती और घंटों लिखती रहती। आध्यात्मिक लेखन, निबन्ध, भजन, गाने, जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए और खूब सराहे गए। उन्हे लगा ईश में उनकी आस्था और लगन रंग लाई है, आखिर प्रभु ने उनकी प्रार्थना सुन ली है। तेरह साल का शुस्क, नीरस, बन्दनी का जीवन, बेअसर प्रार्थनाएं, तब कहीं जा कर हुई प्रभु की दया दृष्टि, कृपा वृष्टि। वे एक साधवी महात्मा की तरह पूजी जाने लगीं। यह अनुभूत आत्मज्ञान और उससे प्रेरित प्रेरणास्पद लेखन, प्रभु कृपा से नहीं अन्य किसी कारण से हो सकता है, ऐसा न कभी उन्होने सोचा न उनके किसी सहयोगी या अनुयाई ने।
समयोपरांत सिस्टर जोह्न के सर दर्द के दौरे असह्य होने लगे। साथ अन्य लक्षण भी जो उनकी आश्रम की जीवनचर्या में बाधक होने लगे। उन्हे डाक्टर के पास भेजा गया। न्यूरोलोजि विशेषज्ञ ने जब उनका ईईजी और मस्तिष्क का सीटी स्केन किया तो एक छोटा सा मेनेन्जियोमा नामक ट्यूमर मिला जो उनके मस्तिष्क के टेम्पोरल लोब पर दबाव डाल रहा था। न्यूरोलोजिस्ट ने बताया कि उनके सर दर्द के दौरे, रहस्यमय आध्यात्मिक अनुभूतियां और अतिशय लेखन ट्यूमर द्वारा टेम्पोरल लोब पर दबाव के कारण है। दबाव से जब टेम्पोरल लोब में उद्वेलन होता है तो उसकी सामान्य प्रक्रिया विकृत और तीव्र हो उठती है। फलस्वरूप अति आध्यात्मिकता, अतिशय लेखन और सिर दर्द के दौरे पड़़ते हैं। अमूमन ऐसे दौरे (एपिलेप्सी) टेम्पोरल लोब के अन्दर छोटे से उत्तेजक फोकस के कारण होते हैं (टेम्पोरल लोब एपिलेप्सी)। अमेरिकन न्यूरोलोजिस्ट नोर्मन गेश्चविंड ने 1960 से 1970 की अवधि में अनेक ऐसे रोगियों का विवरण प्रकाशित किया जिनमें टेम्पोरल लोब में इर्रीटेबल फोकस के कारण रहस्यमय परानुभूतियां (मिस्टिक विजन), अति आध्यात्मिकता (हाईपर रिलिजियोसिटि) और अतिशय लेखन (हाईपरग्राफिया) के दौरे पड़े। पुष्टि करते हुए स्विस न्यूरोलोजिस्ट ओलफ ब्लान्के ने हाल ही में उजागर किया है कि शरीर से इतर (बाहर) रहस्यमयी परा–अनुभूतियां, जैसी सिस्टर जोह्न को हुई, वे टेम्पोरल और पेराइटल लोब के संधिस्थल पर स्थित एन्गुलर जाइरस के विकृत तीव्र उद्वेलन के कारण होती है। मस्तिष्क का यह भाग ज्ञानेन्द्र्रियों से आये संवेदों के संयोजन, संकलन व सरंक्षण में अहम भूमिका निभाता है।
साथ ही उन्होने आगाह किया कि ऐसा नहीं है कि हमेशा ट्यूमर जनित मिरगी में ही शरीर से इतर परा–अनुभूतिया होती है। ये आध्यत्मिक व अन्य अनुभूतियां स्वतःस्फूर्त भी हो सकती हैं। इसके भी काफी साक्ष्य हैं। ई ई जी व अन्य परीक्षण पर इन में टेम्पोरल लोब में हाईपर एक्टिव फोकस मिलता है। इसे टेम्पोरल लोब एपीलेप्सी (मिरगी) की संज्ञा दी जाती है।
सिस्टर जोह्न के केस में टेम्पोरल लोब को दबाता मनिन्जियोमा ट्यूमर और उसके कारण होते लक्षणों के पुख्ता साक्ष्य थे। ज्यों ज्यों ट्यूमर बढ रहा था लक्षण गंभीर होते जा रहे थे। हलके से चक्कर के साथ आरम्भ, आध्यात्मिक चेतना, दिव्य आलोक और दिव्य दर्शन, अब असहनीय सिर दर्द का रूप ले चुके थे। ऐसा लगता था जैसे टूटे कांच के नुकीले धारदार किरचों पर चलना हो। डाक्टरों के अनुसार ट्यूमर निकालना ही एक मात्र उपचार था। लेकिन ट्यूमर निकालने से क्या आध्यात्मिक अनुभूति और उनकी स्मृति भी खत्म हो जायगी? क्या फिर उसे दिव्य ज्योति, दिव्य दर्शन नहीं होंगे? क्या जिसे वह आध्यात्मिक सिद्धि मान रही थी वह व्याधि जनित भ्रम मात्र था? क्या उसके आध्यात्मिक चिंतन, आचरण, प्रवचन, लेखन से आश्रम और अनुयाइयों मे जो उसकी एक सिद्ध साधवी की छवी बनी थी वह खत्म हो जायगी? वह अपना प्रभुलीन परमानन्द नहीं खोना चाहती। वह नहीं चाहती कि जिस आश्रम में आज वह एक सिद्ध साधवी के रूप में पूजी जाती है, वहां वह साधारण सिस्टर्स की तरह झाड़ू पोंछा कर अपना जीवन बिताये।
सिस्टर जोह्न, जग प्रसिद्ध रशियन लेखक डोस्टोयास्की, जिन्हें भी टेम्पोरल लोब एपिलेप्सी थी, के इन उदगारों की कायल थीः ‘‘कुछ क्षण होते है जब आप बृम्हलीन परालोकिक शान्ति महसूस करते हैं। उन कुछ क्षणों में मैं अपना सम्पूर्ण मनुष्य जीवन जी लेता हूं। इन क्षाणो के लिए मैं अपने पूरे जीवन को उत्सर्ग करना चाहूंगा, मुझे नहीं लगता यह कोई बड़ी कीमत है।’’ डोस्टोयास्की ने अपनी पुस्तक ‘द ईडियट’ (जो हिन्दी में ‘बोडम’ नाम से अनुदित हुई) के प्रमुख पात्र द्वारा ऐसे दौरे और उनसे उत्पन्न धार्मिक और आध्यात्मिक उद्वेलन का विस्तृत प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है। प्रामाणिक इस लिए कि यह उनके स्वयं के अनुभव आधारित था। डोस्टायास्किी इन दौरों के साथ जिए, दौरों को जिए, दौरों से उत्पन्न उनुभूति को अपनाया, उसे अपने व्यक्तित्व का अंग बानाया, माना।
सिस्टर जोह्न भी अपने आध्यात्मिक अनुभव और दौरों के बीच अर्जित धार्मिक व सामजिक उपलब्धियों को जीवन का सच मानती है, आत्मा मानती है। क्या इसे इस आधार पर नकारा जा सकता कि यह ट्यूमर जनित हैं? क्या रोगी की आत्मा को नष्ट करना सार्थक व भला चिकित्सकीय कर्म होगा? सिस्टर जोह्न का अंतर्द्वंद्व गहरा था।
सिस्टर जोह्न का केस डोस्टोयास्की से अलग था। उन्हे मेनेन्जियोमा ट्यूमर था जो टेम्पोरल लोब पर दबाव डाल रहा था। हालांकि यह ट्यूमर कैंसर नहीं होता, बेनाइन ट्यूमर होता है, जो बढता जाता है। दबाव बढने के साथ केवल दौरे ही अधिक दुखदाई और गंभीर नहीं हुए वरन् और भी अनेक गंभीर लक्षण आये और वे अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन खो बैठी, लकवा, कोमा आदि। न्यूरोलोजिस्ट को दिखाने गई तब तक वे तीन बार कोमा में जा चुकी थी। वे आश्रम की सिस्टर्स पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। ऐसे तो वे आध्यात्मिक तो क्या सामान्य जीवन भी नहीं जी पायेगी। वे नहीं चाहती ऐसा हो।
सिस्टर जोह्न गंभीर दुविधा में थी। आपरेशन करवायें या नहीं। आपरेशन के अलावा कोई इलाज नहीं था।
अंतोतगत्वा सांसारिक विवेक ही सिस्टर जोह्न के निर्णय का संबल बना। उन्होने आपॅरेशन करवाया। आध्यात्मिक जीवन समाप्त हो गया। स्वस्थ हो कर उन्होने आध्यात्मिक जीवन की जगह रोगियों की सेवा मे अपना जीवन लगया। दीन दुखियों की सेवा। धर्मनिष्ठा के साथ सामान्य सेवा समर्पित जीवन।
डॉ.श्रीगोपाल काबरा
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