“आम का एक प्रकार है लंगड़ा आम। जब सरकार ने लंगड़ा शब्द को डिक्शनरी से हटा दिया और दिव्यांग शब्द जोड़ दिया, तो फिर आम को भला लंगड़ा कैसे पुकार सकते हैं, यह तो सरासर उसके साथ अन्याय है। इसलिए मैंने दिव्यांग आम कहना शुरू कर दिया है, क्या पता कब मेरे लंगडा आम कहने पर आम भड़क जाए और मुझ पर जाती सूचक अपमानित शब्दों से संबोधित करने के कारन मेरे खिलाफ गैर जमानती वारंट निकलबा दे, वैसे भी सरकार भी तो आम की ही सुनती है, मुझे मालूम है, मेरे खिलाफ गवाही देने के लिए आम के साथ सारी आवाम खड़ी है, क्योंकि मुझे आम में शामिल नहीं किया गया।”
सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबार की आम खबरें गटक रहा था। अखबार में खास कुछ नहीं था, रोज़मर्रा की लूटमार, डकैती और प्राकृतिक आपदाओं के रिकॉर्ड, चुनावी सरगर्मी की बासी ख़बरें , गर्मी के तीखे तेवर और लू से मरने वालों की मौत के आंकड़े। सब इतनी आम खबरें हैं कि निगाहें किसी एक खबर पर रुकती ही नहीं है , लेकिन ये चंचल निगाहें एक खबर पर टिक ही गयी । ये आम खबर नहीं, लेकिन आम के बारे में थीं। जी हाँ, आम फलों के राजा के बारे में।
बात ये थी कि कोई आम जो इतना खास था कि वह एक लाख रुपए किलो बिक रहा था। आम जो हमारे बचपन में आम की टोकरीयों से सिमटकर अब प्लास्टिक की थैलियों में आधा एक किलो तक आ गया है। लेकिन चूंकि आम के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है, चाहे वह आम आदमियों में हो या फलों में, खासकर जब से आम आदमी सत्ता संभालने लगा है, आलीशान महल में रहने लगा है, घोटालों की फेहरिस्त से अपने और आने वाली सात पीढ़ियों के भाग्य चमका रहा है, तब से तो कुछ ज्यादा ही इस आम आदमी बनने के चक्कर में लोग लगे हुए हैं-ज्यादा मुश्किल भी नहीं है-शर्ट के ऊपर के दो बटन खुले कर लो,एक गांधी टोपी, गले में मफलर ,शर्ट का एक कोना पेंट से बहार निकला हुआ और पैरों में चप्पल बस आप आ गए आम आदमी की श्रेणी में ,कुछ रेबडी दाता की जयकार कर रहे है ,फ्री की बंटी रेबडीयों का हक़ अदा कर रहे है । भाई आम ही तो है जो अगर आदमी के आगे लग जाए तो कब आपके भाग्य खुल जाए पता नहीं चले, कब शीशमहल में लाखों के रिमोट वाले परदे लग जाए,बाथरूम में रिमोट वाले फ्लश ,सोच कर ही मुझे तो इस आम आदमी की दिन दूनी रात चोगुनी उपरी आमदनी से इर्ष्या सी होने लगी है !
अब गरीब कोई नहीं है, अमीर कोई नहीं है, आप या तो आम हैं या खास। लेकिन अब खास ने भी आम से दोस्ती कर ली है और दोनों के संगम से आम और खास की खाई पट गई है। आम भी खास हो गया है।
इस महंगाई के जमाने में वैसे भी आम बेहद खास हो गए हैं जी। लद गए वो दिन हमारे बचपन के जब आम की अमियों से लदे पड़े पेड़ों के झुरमुट गांव के आंगनों में ,बगीचों में और रास्ते के दोनों ओर मिलते थे ओर इन आम के झुरमुटों से सूरज भी अपना रास्ता ,गाँवों के रास्ते तक नहीं बना पाता था। वहीं गुल्लक कांकडी खेलते, खूब मिट्टी के ढेलों से अमिया तोड़ी हैं, कच्चे आम नमक मिर्ची के चटकारे के साथ खाए हैं। बगीचे के माली की डांट फटकार और डंडे की मार से भागे फिर छुपम-छुपाई खेलते, वो जो कच्चे आम खाने का मजा था वो आजकल सब्जी मंडी में नई नवेली दुल्हन की तरह सोलह श्रृंगार किए सजे धजे हुए आमों में कहाँ।
बेशक हमारे पास चीजों को खरीदने के लिए पैसे आ गए लेकिन जो मिठास उन चुराए हुए आमों में थी वो इन खरीदे हुए आमों में कोसों दूर। कहते हैं ना आम के आम गुठलियों के दाम। हम गुठलियों को भी ऐसे ही नहीं फेंकते थे, उन्हें बड़े जतन से घर के आँगन में गाड़ देते थे, पानी देते थे, कुछ दिनों बाद बरसात में आम का छोटा सा पौधा निकल आता था। और तो और कई बार गुठलियों के हार्ड कवर को हटाकर उसमें से पल्प यानी गूदे जैसी गुठली को निकालते, उसे ईंट पर रगड़ कर उसका बाजा बना लेते थे और दिन भर उसमें फूँक मारते रहते थे।यूँ तो आम की इतनी वैरायटी है, लगभग 1500 प्रकार की, लेकिन जो देसी पिलिपिले आम हमारे जमाने में पहले हाथों से मसलकर पिलपिला कर के चूसकर खाए जाते थे, वो मजा आजकल के सफेदा और कलमी आमों को काटकर खाने में नहीं। वो जमाना था जब आम की पूरी टोकरी आती थी, घर में ही नहीं मोहल्लों में भी आम बांटे जाते थे। आम का रस बनाया जाता था, सभी आमों को मिट्टी के बरतन में पानी भर कर डाल देते थे, ठंडा करके फिर उसका आम रस बनाते थे।
शाम को घर की छत को पानी के छिड़काव से ठंडी करके, वहाँ सभी घरवाले एक साथ बैठकर रोटी और आम रस की छाक लेते थे। वह जो दावत थी उसके सामने आजकल के 56 व्यंजनों से सजी शाही दावत भी बेकार लगती है । आम पाना भी पूरी गर्मी चलता था, गर्मियों में ठंडा पेय आम पाना सभी प्रकार की पेट संबंधी समस्याओं का भी एक रामबाण इलाज था! और फिर आम का अचार और मुरबा ! वो डिब्बा बंद नहीं ,घर पर माँ के हाथों का बनाया हुआ, जो बनता तो गर्मियों में लेकिन पूरी साल चलता था,और बहिन बेटियों की ससुराल में,पड़ोसियों को सभी जगह भिजवाया जाता था ! आजकल तो रिश्ते भी तो ख़ास नहीं होकर आम हो गए है , जो बस सोशल मीडिया के एक सन्देश और डिजिटल कार्ड तक सीमित रह गए है, जाने कहाँ गए वो दिन जब, किसी शादी ब्याह फंक्शन में निमंत्रण देने के लिए घर जाते थे, निमंत्रण पत्र के साथ शब्जी के रूप में आम की टोकरी जाती थी | मामा ,मौसी बुआ,नानी के घर पर आने का मतलब की ,बस खूब आम खाने को मिलेंगे ,और गुठलियों से आम के पेड़ लगाने को !
गर्मियों का मौसम है, इस बार की गर्मी तो वैसे ही सारे रिकॉर्ड तोड़ गई है। आजकल भ्रष्टाचार, डकैती, बलात्कार, महंगाई, स्कैंडलों के आंकड़े रिकॉर्ड तो रोज़ टूट ही रहे हैं, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस रिकॉर्ड ब्रेकिंग प्रतियोगिता में अपनी भागीदारी निभाना शुरू कर दिया है। चुनावी गर्मी को और आग देता हुआ तपता सूरज , आम आदमी की मेहनत के पसीने की बूंदों को शरीर पर आने से पहले ही सुखा रहा है।
लेकिन आम शब्द को जो इज्जत आदमी के आगे लगने से मिलती है उतनी उसे कही और लगने में नहीं मिलती बल्कि कही और लगे तो उसे दो कौड़ी का ,ध्यान नहीं देने योग्य बना देता है। वह चाहे आम चुनाव हो, आमराय, आमजन, आमसभा, लेकिन आम से पूछो कि आपके नाम के कॉपीराइट का इस प्रकार से सार्वजनिक जिल्लत उसे पसंद है या नहीं। अब देखो न, आम का एक प्रकार है लंगड़ा आम। जब सरकार ने लंगड़ा शब्द को डिक्शनरी से हटा दिया और दिव्यांग शब्द जोड़ दिया, तो फिर आम को भला लंगड़ा कैसे पुकार सकते हैं, यह तो सरासर उसके साथ अन्याय है। इसलिए मैंने दिव्यांग आम कहना शुरू कर दिया है, क्या पता कब मेरे लंगडा आम कहने पर आम भड़क जाए और मुझ पर जाती सूचक अपमानित शब्दों से संबोधित करने के कारन मेरे खिलाफ गैर जमानती वारंट निकलबा दे, वैसे भी सरकार भी तो आम की ही सुनती है, मुझे मालूम है, मेरे खिलाफ गवाही देने के लिए आम के साथ सारी आवाम खड़ी है, क्योंकि मुझे आम में शामिल नहीं किया गया। हम जैसो को जो न ख़ास बन पाए न आम, सिर्फ माध्यम वर्गीय क्लास की पट्टी गले में टाँगे, दिन रात बिजली के बिल जमा कराने की लाइन में लगे हुए ,दफ्तरों में, बैंकों में लोन ,ई एम् आई की किश्त भरने के लिए चप्पल घिसते हुए, बॉस की डांट फटकार और घर में बीबी की तकरार के बीच जैसे तैसे अपनी गृहस्थी की गाडी घसीट रहे है !. अब सरकार भी हमे इस लोकतंत्र की तलछट की तरह मानती है , सही मायने में जो लोकतंत्र के मंथन से निकला मक्खन है वो तो आम आदमी है, जिसके लिए सरकार स्कीमें बनाती है, योजनायें बनाती है, बजट की बंदरबांट होती है , ये अलग बात है की धीरे धीरे आम आदमी का तमगा मिलना अब मुश्किल होता जा रहा है, scheme भी अब पहुँच वाल रसूख दार लोगों को ही आवंटित होगी, यानी की आपको अब ख़ास आम आदि बनाना पड़ेगा ! किसी नेता जी का खास, सरपंच का खास या सरकारी बाबु का खास ! जनधन योजना, आयुष्मान योजना, खाद्य सुरक्षा में नाम जुडवाना अब हर किसी के बस की बात नहीं, आपके गरीब होने का सबूत देते देते आपकी एड़ियां घिस जायेगी, मुझे मालूम है चप्पलें तो वैसे भी गरीब के पैर में होती नहीं ! देखता हूँ OPD में रोज ऐसे कई मरीज, निहायत ही गरीब, जिनके घर पे दो वक्त का चूल्हा जल जाए, बहुत ही बड़ी बात,लेकिन सरकार के द्वारा चलाए जाने वाली स्कीमों की पहुँच से बहुत दूर, अपना जनाधार कार्ड नहीं बनवा पाए, खाद्य सुरक्षा में नाम नहीं लिखवा पाए !
यूँ तो ‘आम’ शब्द खुद अपने आप में थोड़ा नॉन-VIP की श्रेणी वाले तुच्छ से फुटपाथी पर सोने वाले मजदूर की तरह लगता है जिसे कब कोई ख़ास बिगडैल नशे के धुत्त में अपनी गाडी से रोंद जाए पता ही नहीं चले, लेकिन जिस मधुशाला की रसधारा समेटे हुए फल सम्राट की नाम प्लेट से ये शब्द उधार में लेकर इसकी छीजत की वो “आम” फलों का राजा अपने आप में खास है।
अब तो आम इतना खास हो गया है कि सरकार ने भी खास पहुंच वाले रसूखदार लोगों के घरों के बगीचों में आम के पेड़ों की रखवाली के लिए पुलिस के गार्ड नियुक्त कर दिए हैं। आम पर पहले भी बस बादशाहों का, राजा-महाराजाओं का ही हक होता था। जनता की पहुंच से दूर, सिर्फ रनिवास में ही आम का रसास्वादन नसीब था।
मिर्ज़ा असद उल्लाह खान ग़ालिब तो आम के प्रसिद्ध रसिक शायर के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने आमों की तारीफ में लिखा है, “बारे आमों का कुछ बयां हो जाए, खामा नख्ले-रतब फिशां हो जाए।” उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि आम के पेड़ का साया खुदा के साए की तरह है – “साया इसका हुमां का साया है, खल्क पर वो खुदा का साया है।”
गालिब का तो किस्सा है कि एक बार बादशाह सलामत ने उन्हें उनके बाग में आमों को घूरते हुए देख लिया, उन्होंने ऐतराज किया, तो गालिब बोले, “हुज़ूर देख रहा हूँ, अगर किसी आम पर हमारा भी नाम लिखा हो।” बादशाह खुश हुए और उस दिन से रोज़ उन्हें एक टोकरी आम भेजने लगे। आम के बड़े शौकीन थे गालिब, उनकी आम की आदत से उनके साथीयों को जलन भी बहुत होती थी ।
एक बार की बात है, उनकी फल की टोकरी से एक आम नीचे गिर गया। एक गधा ने आम को मुंह लगाया और बिना खाए आगे बढ़ लिया। उनके साथी ने चुटकी ली, “देखो गालिब साहब, आम तो गधा भी नहीं खा रहा।” गालिब तपाक से बोले, “गधा है ना, इसलिए नहीं खा रहा।”
चलते चलते अकबर इलाहाबादी का शेर याद आ गया ‘नाम न कोई यार को पैगाम भेजिए, इस फस्ल में जो भेजिए, बस आम भेजिए।