‘आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’|भजन कीर्तन कथा सुनने आये थे और बैठे रुई की बाती बना रहे हैं या रुई की पूनी से सूत कात रहे हैं। कपास ओटने से याद आया धुनिया (पिंजारा) जो रुई को धुन कर उसके रेशे रेशे अलग करता था, बिनौले अलग। याद आई उसकी धुनकी की टंकार। गांव में बाकी फेरी वाले हवेली के बाहर आवाज लगाते ‘मलाई कुल्फी’-‘मलाई बरफ’, ‘सलमा सितारा, गोटा किनारी’। पुचके चाटवाला घंटी बजाता। खिलौने वाला इकतारा या पूपाड़ी। धुनिया अपनी धुनकी की टंकार बजा कर अपने आने की सूचना देता। जिसे जरूरत,वह अंदर बुला ले।
जाड़े के दिनों के पहले आता था। सोड़, रजाई, गद्दे, तकिये, मसनद आदि में रुई धुन कर भरता। हवेली के संयुक्त परिवार के लिए आता तो उसके लिए हफ्ते- दस दिनों का काम होता। पूरे दिन उसकी धुनकी की लयबद्ध टंकार गूंजती रहती। नीचे बैठने और जमीन पर सोने का चलन था। बैठक और कमरों के लिए बड़े बड़े गद्दे बनते थे।
सफेद कमीज, पायजामा, एक कंधे पर दुपट्टा, दूसरे पर बड़े तिकोने, धनुष नुमा, तांत से बंधी धुनकी और हाथ में एक लकड़ी का बेलन। उसके लिए हवेली के बाहर खुलने वाली एक कोठरी खाली कर दी जाती। रुई दे दी जाती। वह वहीं अपना डेरा जमाता। धुनकी को डोरी से बांध कर लटका देता, नाक मुंह पर अपना दुपट्टा बांधता, ऊकड़ू या पालथी मार कर बैठता, एक हाथ से धनुष (धुनकी) पकड़ता और दूसरे हाथ में बेलन से तांत की डोरी को खींचता छोड़ता, जैसे तीर चलात हैं। तांत से लिपटी रुई के रेशे रेशे अलग हो जाते, बिनौले छिटक कर अलग हो जाते और रुई के फाहों का सामने ढेर लग जाता। जैसे सफेद बादल का टुकड़ा। बिनौलों का ढेर अलग,जो गाय के चारे में दिए जाते।
वह काम करते हुए मगन होकर कबीर के दोहे, भजन गाता। मीठा गला, संगत करती धुनकी की टंकार, रेशे रेशे अलग हो फाहों में उड़ती कपास। आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास के उलट कपास ओटन को आया और मगन हो भजन गाने लगा। उसके भजन अंदर तक उतर जाते, मन भीग जाता। आज भी याद आता है। कबीर के भजन सुन कर वैसा असर फिर कभी नहीं हुआ। कोई अपने काम में इतना मगन हो सकता है, काम करके इतना तृप्त हो सकता है, याद आता है। 60-70 साल पहले की उसकी छवि साकार हो उठती है। नई भरी उसकी रजाई की गर्माहट और गद्दों का गुदगुदापन याद आता है। मोटे सूए से रजाई में डोरे डालते हुए देखना अच्छा लगता था। मोटे गद्दों में डोरे डालने से पहले वह हम बच्चों को उस पर कूदने को कहता। बड़ा मजा आता था।
जब वह रुई धुन रहा होता तो घर का कुत्ता उसकी कोठरी के सामने बैठा रहता। मजे की बात की जब धुनिये के लिए दो मोटी रोटी, साटन और एक गिलास छाछ जाती तो वह उठ कर चला जाता, कारण उसे तो रोटी पहले ही मिल चुकी होती। हाथ मुंह धो कर धुनिया रोटी खाता, छाछ पीता और फिर कुल्ला कर कुछ देर के लिए चबूतरे पर लेट जाता, गहरी नींद सोता। सांझ होते ही काम बंद कर हाथ मुंह धो अपने घर चला जाता।
लड़की के दहेज में सुहाग सेज के लिए जो रेशम या शनिल की रजाई बनती उसमें रुई में धुनाई से पहले हिना या केवड़े का इत्र मिलाया जाता था। धुनाई के समय क्या भीनी भीनी खुशबू तारी होती थी। सेज पर बिठा का जब बिदाई का टीका करते तब क्या महक फैलती थी। हमारे एक रईस मिजाज काकाजी तो हमेशा अपनी रजाई इत्र वाली रुई से ही भरवाते थे। सर्दियों में उनका कमरा महकता था।
धुनिया, धुनकी, धनुष की टंकार, रुई के कोमल फाहे, इत्र की खुशबू और उसके सुर में गाये कबीर के पद एक कभी न भूलने वाली याद है जो सहज ही साकार हो उठती है, जीवंत एहसास होता है।
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
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