जैविक संसार, जीव जगत।प्राणियों में श्रेष्ठ मानव। उसकी श्रेष्ठता का आधार उसकीसोच, विचार, चिंतन, कल्पना और परिकल्पना की शक्ति। अपनीपरिकल्पना को परखनेकी जिजीविषा। इसके लिए तकनीक विकसित करना। हमारे पुरखों को भान था कि अदृष्य जीवोंका संसार है। करोडों योनियों की परिकल्पना। उस परिकल्पना को परखने की उन्नत तकनीक विकसित की गई। यह केवल मनुष्य ही कर सकता था। कहावत है आईज डूनोट सी व्हाटद माइन्ड डज नोट नो। जो सोच में नहीं, जिसकी परिकल्पना नहीं, वह कभी दिखतानहीं। विज्ञान और अनुसंधान ने जो दिखता नहीं था उसे दिखया, मानसिक परिकल्पना को भौतिकरूप में सिद्धकिया। आज हमेंमालूम है कि सूक्ष्म जीव और जीवाणुओं का एक विस्तृत संसार है। हर ऐसे जीव और जीवाणु का जीवन चक्र हमेंज्ञात है, हम ज्ञात कर सकतेहैं।
जीवाणु वातावरण और परिवेश में सर्वव्यापी है। प्राणी इनसे अछूतेनहीं रह सकते।मानव शरीर में प्रवेश, इनके जीवनचक्र का हिस्सा है। जो जीवाणु मानव शरीर में प्रवेश कर रोग उत्पन्न कर सकतेहैं उन्हें रोगाणु कहते हैं। विषाणु इनकी एक अति सूक्ष्म, मात्र एक मोल्यूकूल की बनी, प्रजाति है। लाजमीहै कि वैज्ञानिक हर ऐसे रोगाणु के जीवन चक्रका अध्ययन करें।साथ में यह भी अध्ययन करेंकि मानव शरीरमें उसका जीवनचक्र क्या है? मानव शरीर की क्या प्रतिक्रिया होती है? मसलन प्लेगके रोगाणु चूहोंके शरीर में रहने वाले पिस्सुओं में होते हैं।जब किसी महामारी के कारण चूहे मरते हैं तो पिस्सू उनकाशरीर छोड़ कर मानव को काटतें हैं जिससे प्लेगहोता है। पोलियो, कोलेरा, टी बी, मलेरिया आदि सब के बारे में अध्ययन कर मालूमकिया गया है। मानव शरीर के बाहर रोगाणु के जीवन चक्र की जानकारी के आधारपर उसकी मानवशरीर के पास पहुंच और प्रवेश को रोकने के प्रयास होते हैं।मच्छरों से बचें, खाना उबाल कर खायें, हवा में व्याप्त रोगाणुओं से बचने के लिए मास्क लगायें आदि।जो रोगाणु वातावरण से सर्वथा लुप्तनहीं किए जा सकते उनसे पार पाने के लिए शरीर को सदा सजग, तत्पर और तैयार रहना होताहै। इसे इम्यूनिटी कहते हैं, जीवनपर्यन्त संक्रमण से संघर्ष करने की प्रतिक्रिया, उससे पार पाने की क्षमता।
मानव शरीर में इनकेप्रवेश करने पर क्या प्रतिक्रिया होती है इसका व्यापक अध्ययन किया जाताहै। एनिमल मोडलतैयार किए जातेहैं और संक्रमण होने पर क्याप्रतिक्रिया होती है इसका अध्ययन, विश्लेषण किया जाता है। ज्ञात है कि रोगाणुओं से पार पाने के लिए शरीर में सतत्क्रियाशील एक रक्षासंस्थान होता है। ठीक वैसे ही जैसे राष्ट्र रक्षाके लिए फौज होती है। इसकीसंरचना भी वैसीही होती है। अलग अलग काम के लिए अलग कम्पनियां। रक्त में स्थित श्वेत रक्तकणों की फौज।व्यवस्था के अनुरूप शरीर के ऐसे भाग (बार्डर) जहांसे रोगाणु के प्रवेश की संभावना होती है, फौजीकोशकाओं की टुकड़ियां तैनात रहती है। ये रोगाणु की पहचान कर उसकीजेनेटिक संरचना की सूचना रक्त में बहती श्वेत कोशिकाओं को देती हैं।आक्रमण की सूचनापर रक्षा संस्थान की हर कोशिका अपना निर्धारित काम करने को सजग हो जाती है। प्रथम बार जब संक्रमण होता है तो रक्षा संस्थान उसे स्वयं से भिन्न प्रोटीन के रूप में लेताहै। उसे घेर कर तुरंत बाहरकरने की कार्यवाही करता है। वह रोगाणु को अलग से नहीं पहचानता। शरीर से भिन्न हर प्रोटीन के लिए एक सी प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिरोध को नेचुरल इम्यूनिटी कहते हैं। यह शरीर की स्वस्थता के अनुरूप कम ज्यादा हो सकतीहै। बढाई घटाईजा सकती है।
रोगाणु से लड़ने का जिम्मा बी लिम्फोसाइट श्वेत कणों का होता है। ये रोगाणु के जेनेटिक कोड का विश्लेषण कर उसके प्रतिरोध के लिए एन्टीबोडीज बनाती हैं। ये बी लिम्फो साइट्विभाजित हो कर अपने प्रतिरूप बनाती है जो आवश्यकता अनुरूप एन्टीबोडीज बनाती हैं। चिह्नित रोगाणु का सफाया हो जाता है। इन लिम्फोसाइट् में रोगाणु के जेनेटिक कोड की स्मृति रहतीहै अतः इन्हें मेमोरी कोशिका कहतेहै। ये दीर्घायू होती हैं। रोगाणु का सफाया होनेपर इन एन्टीबोडीज की तात्कालिक आवश्यकता नहींरहती। लेकिन क्योंकि रोगाणु के फिर आक्रमण की संभावना है अतः प्रतिरोध की यह व्यवस्था कायम रखी जातीहै। इसके लिए रोगाणु की स्मृति वाली मेमोरी कोशिकायें रक्त के बाहरजा कर अवस्थित हो जाती हैं।उस रोगाणु के हर नए आक्रमण पर सक्रिय हो कर त्वरित एन्टीबोडीज बनाती हैं। नई बी कोशिकायें जुड़ जाती हैं। इन एन्टीबोडीज द्वारा जूझनेकी शाश्वत प्रक्रिया को एक्वायर्ड या अर्जित इम्यूनिटी कहते हैं। यह एक बार अर्जित (एक्वायर्ड) करने के बाद स्थाई रूप में सुरक्षित रखी जातीहै। ये मेमोरी काशिकायें हरिद्वार के पंडों की तरह होती हैं। जब भी विशिष्ट ‘यजमान’ आता है तर्पण के लिए उसके पंडे की खोज होती है।
मिसाल के तौर पर टी बी को लें। टी बी के कीटाणु वातावरण में सर्वत्र व्याप्त हैं। सांस के साथ हमारे शरीरमें प्रवेश करतेहैं। लेकिन टी बी नहीं होती।बचपन में हुए सामान्य संक्रमण या बीसीजी वेक्सीन से अर्जित प्रतिरोधात्मक क्षमता – इम्यूनिटी -हर नये आक्रमण पर सक्रिय हो जाती है। आक्रमण होते ही रहतेहैं। पहाड़ी इलाकों में जहां टी बी नहीं होतीवहां के लोगोंमें इसके खिलाफइम्यूनिटी नहीं होती।ऐसे लोग शहरांे में आने पर गहन टी बी संक्रमण के सहज शिकार हो जातेहैं।
कोरोना विषाणु एक नया वासरस है। जिसकेप्रतिरोध में हमेंदीर्धकालिक इम्यूनिटी एक्वायर – अर्जित करनी है। जिन व्यक्तियों में यथेष्ट नेचुरल इम्यूनिटी नहीं है उनमें यह घातक हो सकताहै। शेष में इसका सामना करनेसे ही इम्यूनिटी बनेगी। बस इतनाही ध्यान रखनाहै कि पहलीबार में अत्याधिक वायरस न प्रवेश करें। यह वायरसमानव शरीर में ही जीवित रह कर मल्टीप्लाई करता है। शरीर के बाहर इसका अस्तित्व अल्पकालिक है। यह चल-फिर या उड़ नहीं़ सकताहै। हवा में मिट्टी या पानीके कणो पर ही यह वातावरण में फैलता है। हम हवा में इन कणो को कम कर इसकाफैलाव रोक सकतेहैं। हमने यह कर दिखाया है। आज वातावरण कितनास्वच्छ है। हरिद्वार से हिमालय साफ दिखता है। शरीरमें प्रवेश करनेपर हमारा रक्षा संस्थान इससे पार पानेमें सक्षम है। अधिकांश में तो पता ही नहींचलता कि यह कब चुपके से शरीर में प्रवेश हुआ और कब हमारे सजग, सक्रिय इम्यून सिस्टम ने इस विषाणु के खिलाफ इम्यूनिटी अर्जित करली। कुछ में हलके से सिम्पटम्स होते हैं जो आसानी से काबूमें आ जातेहैं। दूसरे सभी सर्वव्यापी रोगाणुओं के खिलाफ जैसे हमनेदीर्धकालिक इम्यूनिटी अर्जित की है वैसेही कोरोना वायरसके खिलाफ भी कर पायेंगे। जैसे और करोड़ों है वैसे ही इस वायरस के सहअस्तित्व में हम सहज जीयेंगे।
संघर्ष बिना कुछ अर्जित नहीं होता। जीवोंमें आपसी संघर्ष प्रकृति का शाश्वत नियम है। प्रकृति ने जहां यह घातक वायरस बनायावहां इस से पार पाने की क्षमता हमें दी है। प्रकृति पक्षपात नहीं करती। सहअस्तित्व में जीने की व्यवस्था करती है। धैर्य रखिये हम अवश्य कामायाब होंगे।
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
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