IRCTC की वेबसाइट पर यदि आप ट्रेन टिकट बुक करते हैं तो आपको Travel Insurance का ऑप्शन मिलता है।यदि आप हां करते हैं तो आप एक नॉमिनल प्रीमियम का भुगतान करते हैं और आपका उस यात्रा के दौरान दुर्घटना बीमा हो जाता है।प्रीमियम शायद एक रुपये से भी कम होता है, यात्री की मृत्यु पर परिवार को 10 लाख रुपये मिल जाते हैं। डिसेबिलिटी पर कुछ कम राशि मिलती है।दुर्घटना चाहे चालक की घोर लापरवाही से हो चाहे रेलवे की गैर ज़िम्मेदारी से हो या फिर अपरिहार्य कारण से हो यात्री के परिवार को तो फिक्स्ड अमाउंट मिलता ही है। ट्रेन किसी कारण कैंसिल हो जाये तो insured यात्री को यात्रा के लिए इस्तेमाल किए गए अन्य साधन का भी भुगतान insurance कंपनी करती है।ये कॉन्ट्रैक्ट यात्री और Insurance company के बीच होता है जिसकी सूचना टिकट बुक होते ही यात्री को sms द्वारा मिल जाती है।यात्री और insurance कंपनी के बीच कोई विवाद हो तो रेलवे का कोई लेना देना नही होता है। रेलवे का काम केवल यात्री से प्रीमियम की राशि लेकर insurance कंपनी को देना होता है।
ये insurance व्यवस्था अस्पतालों में आने वाले मरीजों पर भी लागू हो सकती थी यदि हमारी स्वास्थ्य नीतियां ज़िम्मेदारी से बनाई जाती तो।
इतनी सुंदर व्यवस्था से देश के अस्पतालों को क्यों महरूम रखा गया अब तक इसका जवाब किसी के पास नही है।क्यों देश के डॉक्टर्स और अस्पतालों को कॉन्सुमेर प्रोटेक्शन एक्ट की आग में जलाया जा रहा है,कौन पूछेगा ये सवाल?
आज यदि किसी डॉक्टर की सबसे बड़ी चिंता है तो वो कंज़्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट ही है।डॉक्टर्स और अस्पताल हर दिन इस आतंक के साये में जीते हैं।इस समस्या का इतना सरल समाधान होते हुए भी हम रात दिन कंज़्यूमर केस की आशंका से आतंकित रहते हैं।हज़ारों गंभीर मरीज़ केवल कॉन्सुमेर केस के भय से प्रतिदिन बड़े अस्पतालों के लिए रेफेर कर दिए जाते हैं जिन्हें छोटे अस्पतालों में समय पर सस्ता इलाज मिल सकता था और उनकी जान बच सकती थी।
अस्पतालों में तोड़ फोड़ ,डॉक्टर्स के साथ अभद्रता और कॉन्सुमेर केसेस में करोड़ों के जुर्माने के भय के कारण आब तक हज़ारों ऐसे मरीज़ काल का ग्रास बन गए होंगे जो शायद बचाये जा सकते थे यदि उन्हें रेफेर करने की बजाय समय पर इलाज मिलता ।
ऐसा नही हो सका क्योंकि समय पर इलाज के महत्व को केवल एक डॉक्टर समझ सकता है।बीए, बीएससी ,एमए करके हेल्थ केअर की नीतियां बनाने वाले अफसर और नेता इसे कभी नही समझ पाएंगे।
Acute LVF के मरीज़ को तुरंत diuretic और ऑक्सीजन मिल जाये तो वो बच जाएगा ,रेफेर करोगे तो वो एम्बुलेंस में मर जाएगा।इस तथ्य को समझने के लिए 30 साल मेडिसिन की किताबों में सर खपाना पड़ता है। और 30 साल बाद जब इलाज समझ आ जाता है तो इस डर से नही कर पाते कि मरीज़ को कुछ हो गया तो क्या होगा??कॉन्सुमेर कोर्ट के करोड़ों के जुर्माने कौन देगा? जाहिल भीड़ की मार पीट और Mob Lynching से कौन बचाएगा? ये दो प्रश्न एक बार यदि डॉक्टर के दिमाग मे घुस जाएं तो उसकी कलम मरीज़ को रेफेर ही करेगी उसका इलाज नही करेगी।
इस महान देश की हेल्थ केअर व्यवस्था के महान और विद्वान नीति निर्माताओं, सुन रहे हो एक तुच्छ डॉक्टर के तड़पते मन की व्यथा ?
-डॉ राज शेखर यादव
फिजिशियन एंड ब्लॉगर
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