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“कोचिंग की कक्षाओं में क़ैद कच्चे ख्वाब: आधुनिक शिक्षा का अक्स”

depicting the current educational era where children are losing their childhood in competition coaching classes. The image portrays a group of young students, overwhelmed with books and looking exhausted, in a cramped coaching class setting.

आजकल सोशल मीडिया पर रिजल्टों की मार्कशीटों की बरसात हो रही है, हर बच्चे के नब्बे प्रतिशत से कम अंक नहीं दिख रहे । माना कि आजकल शिक्षा नीति में परिवर्तन हुआ है, और अब बच्चों को उदारता से मार्क्स दिए जाते हैं,किसी को फ़ैल नहीं किया जाता है लेकिन हमारे जमाने की तरह तो बिलकुल नहीं जब बोर्ड परीक्षा का मतलब होता था तीस बच्चों की क्लास में दो या तीन का पास होना । और उसमें से अगर कोई प्रथम श्रेणी में आ जाए तो पूरा गांव जश्न मनाता था। लंगर ,सवामनी होती थे, शाम को भंडारे के साथ भजन मंडली बुलाई जाती थी !

हमें याद है हमारा स्कूल नया-नया मैट्रिक अपग्रेडेसन हुआ था तो पहले दो साल तो एक भी बच्चा पास नहीं हुआ, स्कूल के डिमोशन की नौबत आ गई, स्कूल के मास्टरों में हड़कंप मच गया, कई मास्टरों का तबादला कर दिया गया, फिर नए मास्टरों ने क्लास में से दो बच्चों को पकड़ा, उनके सामने गिड़गिड़ाए और स्कूल की लाज रखने की दुहाई दी, उनमें से एक मैं भी था। सच पूछो तो स्कूल कभी प्रायोरिटी में रहा ही नहीं, स्कूल नहीं जाने के लिए जितने पापड़ हमने बेले हैं, उतने आजकल के बच्चे स्कूलों में ,कोचिंग क्लास में अव्वल आने के लिए बेलते है, | जहा हमरे समय में स्कूल नहीं जाने का मतलव उस दिन मस्ती धमा चौकड़ी होनी है वहीँ आज कल के बच्चे तो एक दिन अगर घर में फंक्शन भी हो और माँ बाप उन्हें जबरदस्ती घर में रोक लें तो ऐसे मुह बनायेंगे जैसे उनके केरीएर को चोपट करने में माँ बाप का ही हाथ है !

खैर, मैं बात कर रहा हूँ अंकों की, हमारे समय में हम तो सिर्फ पासिंग मार्क्स तेतीस प्रतिशत जानते थे, उसमें से भी कुछ विषयों में ग्रेस लगकर पास होते थे। आजकल के अठानवे प्रतिशत में तो हमारे समय के तीन बच्चे पास हो जाएं। कई बच्चे तो एक ही क्लास में जमे रहते थे ,जैसे की उन्हें पंचवर्षीय योजना में लगा दिया गया हो ! मास्टर रिटायर हो जाते लेकिन बच्चा नहीं, और ये ही बच्चे बाद में स्कूल के मॉनिटर बनते। और फिर आगे चलकर ये ही नेता। नेता बनने की नींव बचपन में स्कूल में मॉनिटर के रूप में ही बन जाती है। किताबें भी सीमित थीं, सिलेबस नाम की कोई चीज़ नहीं थी, किताबें जो खरीदते वो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती, पहले आपके काम आएगी फिर आपके छोटे भाई-बहन के काम आएंगी, फिर आपके चाचा ,ताऊ, भुआ, मौसी के बच्चों के ! अंग्रेजी विषय में ‘थर्सटी क्रो ‘की कहानी ,एक घर के काम के लिए स्कूल के हेडमास्टर साहब को लिखी आवेदन और एक एक गाय पर निबंध रट लेते थे . अंग्रेजी की ए बी सी डी भी छटवीं क्लास में जाकर सीखी थी, अंग्रेजी के शब्दों की स्पेल्लिंग की अन्त्याक्षरी होती थी ,दो साल तो ‘डब्लू एच ए टी व्हाट व्हाट मणि क्या सीखने में निकाल दिए ‘!

गाय का निबंध ऐसा था कि वो हर किसी में चिपका देते थे , अगर स्कूल पर आए तो काऊ की जगह स्कूल लिखना होता था बस। कुल मिलाकर कॉपी भर देते थे और हाँ, इंप्रेशन मारने के लिए सप्लीमेंटरी जरूर लेते थे। वैसे क्योंकि दो साल से रिजल्ट निल बटे सन्नाटा था तो मास्टरों ने भी इस बार नक़ल करने का पूरा जुगाड़ लगा दिया था। दो मास्टर बाहर फ्लाइंग स्क्वाड की सूचना के लिए लगा दिए थे। बाकी अंदर पर्चियाँ बंटती गईं, कुल मिलाकर स्कूल का डिमोशन होने से बच गया।

कैरियर के प्रति न पैरेंट्स न बच्चे खुद संजीदा थे। अगर किसी दिन भावावेश में रात को थोड़ा सा पढ़ भी लेते थे तो मम्मी पापा बोल देते थे “अरे सो जा अब, कल पढ़ लेना। “ स्कूल से बस्ता घर पर आता पूरे दिन लावारिस की तरह एक कोने में पड़ा रहता, दूसरे दिन स्कूल की पहली घंटी पर ही हाथ में लेते। पता नहीं क्यों बस्ता काटने को दौड़ता था ! स्कूल में ही होमवर्क निपटाते, मास्टर की डांट बेंत की सुताई और मुर्गा बनने के तो आदी थे। मास्टर जी क्लास में घुसते ही आधे बच्चे तो पहले ही मुर्गा बन जाते, मास्टर जी को कहने की जरूरत ही नहीं थी।

आजकल बच्चे निन्यानवे प्रतिशत आने पर ही एक पर्सेंट क्यों नहीं मिला उसके लिए एग्जामिनरों को कोसते हैं, डिप्रेशन में आ जाते हैं, जिस प्रकार से छठी क्लास से ही बच्चों को फाउंडेशन क्लास और कॉम्पिटीशन की आग में झोंका जा रहा है बहुत कुछ बच्चों का बचपन छीना जा रहा है, जिन हाथों में खिलौने होने चाहिए, मेले की खुशबू से सरोबार होना चाहिए,रामलीला,रासलीला,मदारी के खेल,तमाशबीन, छुपम छुपाई खेल होने चाहिए ,उन हाथों में भभारी बस्तों और पेरेंट्स की अनंत महत्वाकान्खाएँ ! वो कॉमिक्स की दुनिया चंपक, चाचा चौधरी और साबू पहलवान जो हमारे रोल मॉडल हुआ करते थे कहाँ गए सब। केमिस्ट्री और फिजिक्स के जटिल फॉर्मूलों के नेट में फंसा बच्चा अपनी घुटन से फ्री होना चाह रहा है और हम हैं कि उसकी तड़पन को महसूस नहीं करते बल्कि ताली बजा रहे हैं। जश्न जहां पहले पास होने पर होता था वो अब मेरिट में आने पर भी नहीं होता, मेरिट में बच्चा आया नहीं कि उस पर अब कॉम्पिटीशन फाइट करने की महत्वाकांक्षाएं थोप दी जाती हैं, बच्चा मोहरा बन गया है कोचिंग संस्थानों का, उनके लिए ब्रांड एंबेसडर बन गया है , उनको बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर चिपका कर साफ पहना कर मालाओं से लादकर उन्हें अपनी कोचिंग के प्रचार-प्रसार के लिए उपयोग किया जाता है। बच्चे की खुद की कोई चाहत नहीं वो कर रहा है अपने पेरेंट्स की महत्वाकांक्षाओं के लिए या कोचिंग के घरानों की स्वार्थ पूर्ति के लिए।खैर, आजकल के शैक्षणिक माहौल का यही दुखद पहलू है कि बच्चों की मासूमियत, उनके खेल और उनके सपने कहीं पीछे छूट रहे हैं। वे बचपन से ही अंकों की रेस में दौड़ लगा रहे हैं जैसे कि वे कोई चलती फिरती उच्च प्रौद्योगिकी मशीनें बन गयी हों, जिनका एकमात्र उद्देश्य अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करना हो। विडंबना यह है कि जिन हाथों में कलम और किताबें थमाई जानी चाहिए, वहां अब बस बोझिल होमवर्क और कंपीटिशन की किताबें थमाई जा रही हैं।

एक ज़माना था जब गांव के मेले में खोया हुआ बच्चा अपनी माँ की चिंतित आवाज़ सुनकर दौड़ा चला आता था, आज वही बच्चा कोचिंग सेंटर की घंटियों पर अपने नंबर की पुकार सुनने के लिए बेताब है। बचपन की वह आज़ाद खुशबू कहीं पीछे छूट गई है, सच पूछो तो बच्चे सिर्फ स्कूल के बस्ते की तरह ही उदासीन और लावारिस पड़े रहते हैं।

जहां पहले पढ़ाई का मतलब ज्ञान का अर्जन था, वहां अब यह केवल नंबरों का खेल बनकर रह गया है। जिस तरह से माता-पिता और शिक्षक कभी बच्चों को नैतिक शिक्षा देने और संस्कार गढ़ने में ज्यादा ध्यान देते थे ,बच्चों को सही गलत की पहचान करवाते थे, वह अब कैरियर गाइडेंस ,काउन्सल्लिंग और उन्हें सफलता की सीढ़ियों पर धकेलने की होड़ में बदल गया है। बच्चों का बचपन अब उनके रिज्यूम और मेरिट सर्टिफिकेट्स में सिमट कर रह गया है। केरीएर काउंसलिंग के साथ ही जिस प्रकार से बच्चे डिप्रेशन,मेंटल इशू के शिकार हो रहे है और आये दिन आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही ,साईंकीएट्रिक काउन्सल्लिंग ज्यादा जरूरी हो गयी है !

खैर, जिस दिन यह शैक्षिक प्रणाली बच्चों को उनके सपने जीने की खुली छूट देगी, वह दिन शायद हमारे शिक्षा का सबसे बड़ा जश्न होगा।

रचनाकार -डॉ मुकेश ‘असीमित’

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