आदिकाल से चिकित्सक, रोग और व्यधियों का व्याख्यात्मक स्पष्ठिकरण देने को सतत चेष्ठारत रहे हैं। रोग स्पष्ठिकरण की ऐसी परिकल्पना (थ्योरी) जिसे व्यापक मान्यता मिले। यह उनके चिन्तन का प्रमुख विषय रहा है। आदिक्रम से देखें तो कभी भूत-प्रेत और दुष्ट आत्मोओं को रोग और व्याधियों का कारक माना जाता था और उनसे निवारण, चिकित्सा। इस हेतु विधियों का विस्तार ही विकास, प्रगति। झाड़-फूंक, गंडा-ताबीज़, तंत्र-मंत्र, होम-उनुष्ठान का बोल बाला रहा (अब भी है)। हट्टा कट्टा व्यक्ति, सीने में तीर्व दर्द से बीमार हुआ (हृदय घात?) तो मान्यता थी किसी ने मूठ चला दी है। उसे रोकने और निरस्त करने के लिए टोने टोटके होते थे।
इसके बाद, पश्चिम में, अंगों में प्रवाहित विभिन्न द्रव्यों में दोष को रोग-दोष माना गया। फलस्वरूप रक्तस्राव, डाम लगाना, कपिंग (सिंगी, कुल्हड लगाना), पसीना बहा कर या पेट साफ कर दोष निवारण किया जाता था। यह कई शताब्दियों तक चला (आज भी चल रहा है)। वात, पित्त और कफ की अवधारणा इसी की समकक्ष है। पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में स्वजनित विषाक्तता की अवधारणा बनी। आंतों में मल को इसका मुख्य स्रोत माना गया। आंतों का खाली करने, खाली रखने, धुलाई करने का उपचार वर्षों चला। उसके बाद दांत, टोंसिल, अपेंडिक्स ओर पित्त की थैली स्थित संक्रमण से उत्पन्न आंतरिक विषाक्तता को शारीरिक व्याधियों के मूल में माना गया। बतौर उपचार लाखों टोंसिल, अपेंडिक्स निकाले गए। साईको सोमेटिक – मनः स्थिति जन्य शारीरिक – रोग/व्याधियों का बोल बाला 1930 से चला।
फिर जब रोग विशेष के विशिष्ठ रोगाणुओं का पता चला तो अधिकांश प्रचिलित गंभीर रोग उपरोक्त मान्यताओं से बाहर आगये। तब टी बी दीर्घ कालिक महामारी थी। शरीर का ऐसा कोई अंग नहीं है जिसकी टी बी नहीं होती। भीड़ भाड़, कुपोषण, गरीबी, गंदगी, दूषित हवा, सूरज की रोशनी की कमी को टी बी का कारक माना जाता था अतः स्वच्छ हवा और रोशनीदार सेनेटोरिया में मरीजों का इलाज चला। जब टी बी की रोगाणु नाशक विशिष्ठ दावायें आयीं तब पुख्ता रूप से माना गया कि इसका प्रमुख कारण रोगाणु हैं जिनका नाश करने से ही रोग पर काबू पाया जा सकता है।
एक रोगाणु एक रोग, यह धारणा मात्र उन संक्रामक रोगों के लिए सही है जिनके लिए सार्थक एन्टीबायोटिक दवाये हैं। बाकी के सभी रोग में बहुत कारण होते हैं जिनमें प्रमुख हैं जीवन-शैली, परिस्थिति और वातावरण। इन रोगों की प्रगति अनिश्चित होती है। गंभीर होने के बावजूद करीब एक तिहाई में यह अपने आप ठीक भी हो जाते हैं। लेकिन ऐसा कब होगा कैसे होगा कोई कुछ नहीं कह सकता। इनका पुख्ता कोई इलाज नहीं होता अतः हर तरह के इलाज और टोना टोटका प्रचलन में होते हैं। स्वतः ठीक होने के समय जो इलाज या टोना टोटका चल रहा होता है उसी को इसका श्रेय जाता है। उसे ही प्रमाणिक साक्ष्य माना जाता है। गंभीर रोगी के लिए तो यह चमत्कार से कम नहीं होता। र्ह्यूमेटोइड आर्थराइटिस नामक छोटे जोड़ों को गंभीर क्षति पहुंचाने वाले अति व्यथा कारक रोग में पंच धातु के कड़े पहन ने से या काली तुलसी, भुने लोंग और काली मिरच खाने से लाभ, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाता है।
हम निष्क्रिय दवायें क्यों लेते हैः प्लेसीबो प्रभाव का रहस्य
बीसवी शताब्दी की शुरूआत तक चिकित्सकों के द्वारा काम में ली जाने वाली लगभग सभी औषधियां निष्क्रिय होती थी। फिर भी उनका असर होता था, रोगी ठीक होते थे। अच्छे प्रसिद्ध डाक्टरों के हाथों में ये दवायें कारगर सिद्ध होती थी। मगरमच्छ का मल, सूअर के दांत, गेंडे के सींग, मेंढक के शुक्राणु, बीरबहूटी का शोरबा आदि से बनी औषधियां काम में ली जाती थी और कारगर सिद्ध होती थी। डाम लगाते थे, सींगनी चढाते थे, लीच लगाते थे, खून निकालते थे, वमन, दस्त, धुलाई और धुनाई द्वारा चिकित्सा की जाती थी और रोगियों को लाभ होता था। इन व्यर्थ के उपचारों के बावजूद चिकित्सक का रुतबा ऐसा था कि इलाज कारगर होता था। झूंठी दवाओं से भी लगता था मिरगी के दोरे कम हुए हैं, रक्तचाप कम हुआ है, मिग्रेन सिर दर्द ठीक हुआ है, आदि।
आखिर क्यों? कैसे?
इसे प्लेसीबो प्रभाव कहते हैं। विश्वास प्रभाव। चिकित्सक और चिकित्सा में रोगी के विश्वास का प्रभाव।
पहले यह माना गया कि इसका वास्तविक आधार नहीं है, यह मात्र मरीज का सोच है, सच नहीं। क्यों कि मरीज को विश्वास है कि वह दवा से ठीक होगा अतः उसे लगता था वह ठीक हुआ है। लेकिन जब मस्तिष्क की सूक्ष्म परीक्षण विधियां यथा पी ई टी, एम आर आई और अति सूक्ष्म रासायनिक विधियां विकसित हुई तब देखा गया कि सकारात्मक सोच से मस्तिष्क के संदर्भित भाग में ऐसे रसायन उत्पन्न होते हैं जो अंतःस्रावी (एन्डोक्राइन) द्रव्यो द्वारा उपयुक्त अंगों को प्रभावित कर भौतिक बदलाव लाते हैं। मस्तिष्क में दर्दनाशक और अनेक प्रभावकारी रसायन चिन्हित हुए हैं। प्लेसीबो का प्रभाव मात्र सोच में ही नहीं वास्तव में होता है। कैसे संभव है इसका भी खुलासा हुआ है। सकारात्मक सोच से व्याधियों से मुक्ति में सहायता मिलती है, नकारात्मक सोच से सही उपचार भी कारगर नहीं होता (नोसीबो इफेक्ट)। विश्वास (प्लेसीबो) प्रभाव से उतने ही लोग ठीक होते हैं जितने सही उपचार से। आप स्वेच्छा से शरीर से जो कर पाते हैं उससे कहीं अधिक अवचेतन की मानसिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप मस्तिष्क शरीर से करवाता है। मनःस्थिति जनित शारीरिक रोगों में तो प्लेसीबो का प्रभाव आसानी से समझा जा सकता है लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव र्ह्यूमेटोइड आर्थराइटिस, पेपटिक अल्सर और मस्से (वाटर्स) जैसे रोगों में समझना सरल नहीं है। फिर भी जहां रोगों के उपचार में प्लसीबो इफेक्ट को नहीं नकारा जा सकता वहीं यह भी सच है कि कुछ रोग असाध्य होते हैं।