कोहरे में खिलते फूल-book review

Prahalad Shrimali Sep 20, 2025 Blogs 0

कोहरे में खिलते फूल गृहस्थ-जीवन का ताना-बाना सुदृढ़ बुनावट के लिए रिश्तों के तंतुओं को संबंधों के आत्मीय आयाम हेतु कैसे उपयुक्त रंग एवं आकार में ढालता है, इसका संज्ञान लेता नाटक ‘कोहरे में खिलते फूल’ असमंजस की उलझी डोर को सकारात्मकता का छोर प्रदान करता है। व्यक्ति के स्व-पक्षी चिंतन, आग्रह, पूर्वाग्रह से धुंधलाए […]

कोल्हू का लोकतंत्र-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 19, 2025 व्यंग रचनाएं 2

यह लोकतंत्र दरअसल एक कोल्हू है जिसमें बैल बनकर हम आमजन जोते जा रहे हैं। मालिक—नेता और अफसर—आराम से ऊँची कुर्सियों पर बैठकर तेल चूस रहे हैं। जनता की आँखों पर रंग, धर्म और जाति की पट्टियाँ बाँध दी गई हैं ताकि वह देख ही न सके कि असल में किसके लिए घूम रही है। तेल की मलाई मालिकों के हिस्से में जाती है, जनता को मिलती है सिर्फ़ सूखी खली और भ्रमित श्रेय।

दोस्ती और उधार-हास्य व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 18, 2025 Blogs 2

दोस्ती अमृत है, मगर उधार की चिपचिपाहट इसे छाछ बना देती है। वही दोस्त जो आपकी माँ का हाल पूछता था, अचानक आपकी क्रेडिट कार्ड लिमिट साफ़ कर देता है। रिकवरी के लिए आप गुड मॉर्निंग भेजते हैं और जवाब का इंतज़ार वैसा ही करते हैं जैसे पहले क्रश के ‘हम्म्म’ का। और जब वह अंडरग्राउंड हो जाए, तो समझिए आपकी दोस्ती अब एक व्हाट्सऐप ग्रुप की भावनात्मक कर्ज़ बैठक बन चुकी है।”

लेखक, शॉल और सोहन पापड़ी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

लेखक और शॉल का रिश्ता उतना ही अटूट है जितना संसद और हंगामे का। शॉल ओढ़े बिना लेखक अधूरा, और सोहन पापड़ी के डिब्बे के बिना समारोह अधूरा। यह सम्मान की रीसायकल संस्कृति है—जहाँ शॉल अलमारी से निकलकर अगले कार्यक्रम में, और सोहन पापड़ी बारात तक पहुँच जाती है। लेखक झुकता है—पहले शॉल के बोझ से, फिर आयोजकों की विचारधारा की ओर।

हिंदी हैं हम हिंदोस्ता हमारा

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 14, 2025 हिंदी लेख 0

हिंदी दिवस कोई स्मृति-लेन नहीं, आत्मगौरव का वार्षिक एमओयू है—जिसमें हम तय करें कि अदालत, विज्ञान, स्टार्टअप और दफ्तर की फाइल तक हिंदी का सलीका पहुँचे। भाषा मैनेज की जा सकती है, नियंत्रित नहीं; वह बारात है—जहाँ रोकोगे, वहीं ऊँची ‘हुर्र’ निकलेगी। एआई के युग में भी संवेदना की मुद्रा इंसान ही छापता है; इसलिए हिंदी को रोज़मर्रा, रोज़गार और रोज़दिल में उतारना होगा। यही उसका असली दिवस, कंठ का।

राजभाषा, ज्ञान-व्यवस्था और डिजिटल युग में हिंदी की आगे की राह

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 14, 2025 शोध लेख 0

हिंदी का भविष्य केवल भावनाओं से तय नहीं होगा, बल्कि छह खानों में इसकी ताक़त और चुनौतियाँ दिखती हैं—संस्कृति, व्यापार, न्याय, शिक्षा, मीडिया और सद्भाव। बोलचाल और मनोरंजन में हिंदी मज़बूत है, पर न्याय-व्यवस्था और उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व चुनौती बना हुआ है। समाधान है मातृभाषा-आधारित शिक्षा, द्विभाषिक पुल, देवनागरी-प्रथम मानक और अंतरभाषिक सम्मान। हिंदी तभी लोकतांत्रिक धड़कन बनेगी जब आत्म-सम्मान और समावेशन साथ चलेंगे।

हिंदी: उद्भव, विकास और “भाषा” की मनुष्यता

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 14, 2025 शोध लेख 0

भाषा केवल संचार का औज़ार नहीं, बल्कि मनुष्यता की आत्मा है। संस्कृत से प्राकृत, अपभ्रंश और फिर हिंदी तक की यात्रा हमारे सांस्कृतिक विकास की कहानी है। हिंदी आज विश्व की शीर्ष भाषाओं में है, लेकिन उसकी असली ताक़त आत्मविश्वास और समावेश में है—जहाँ वह तमिल, तेलुगु, बांग्ला, उर्दू जैसी भारतीय भाषाओं के साथ पुल बनाए। टकराव नहीं, संवाद ही हिंदी का भविष्य है।

वैचारिक आज़ादी और हिंदी की अस्मिता

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 14, 2025 Important days 0

1947 की आज़ादी ने हमें शासन से मुक्त किया, पर मानसिक गुलामी अब भी जारी है। अंग्रेज़ी बोलना प्रतिष्ठा, हिंदी बोलना हीनता क्यों माना जाए? हिंदी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है, फिर भी हम अपनी ही मातृभाषा से संकोच करते हैं। सच्ची आज़ादी पार्ट-टू यही है—हीन भावना की जंजीरें तोड़कर, हिंदी को गर्व और आत्मविश्वास के साथ जीवन में अपनाना।

हिंदी दिवस-माइक, माला और मातृभाषा

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 13, 2025 Important days 0

ओपीडी में लेखक-डॉक्टर को एक चालाक रिश्तेदार ‘हिंदी दिवस’ पर मुख्य अतिथि का न्योता थमा देता है—मंशा डोनेशन बटोरने की। तैयारियों के बीच सड़क पर ‘हिंदी माता’ मिलती हैं—लंगड़ाती, अपमानित, साल भर किनारे धकेली हुई। शाल-ताम्रपत्र की औपचारिकता, विभागीय खानापूर्ति और नौकरी-प्रतियोगिता में हिंदी की हीनता पर वे करुण कथा सुनाती हैं। लेखक लौटकर ठठा नहीं, बच्चों को श्रेष्ठ हिंदी साहित्य भेंट करने का संकल्प लेता है।

मैं और मेरी हिंदी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 13, 2025 व्यंग रचनाएं 0

मैं, अंग्रेज़ी दवा लिखने वाला डॉक्टर, अब हिंदी में लिखने लगा तो शहर के ‘हिंदी प्रहरी’ गुरुजी मेरी हर पोस्ट में बिंदी-अनुस्वार ढूंढते फिरते हैं। फेसबुक की वॉल अब क्लासरूम बन गई है—खद्दर कुर्ता, झोला, फाउंटेन पेन और ‘हिंदी की टूटी टांग’ का स्थायी दर्द। मैं त्रिशंकु-सा, हिंग्लिश और देसी मुहावरे के बीच लटका, गूगल इनपुट से जूझता, फिर भी लिखने की खुजली शौक से खुजाता हूँ। बेखौफ़, मुस्कुराते हुए.