.इनके कुछ प्रत्यक्ष लक्षण हैं जैसे अपना मुँह बुरा मानने की मुद्रा में टेढ़ा , भ्रकुटी तनी हुई,नाक के नथुने फूले हुए और फेंफडों की धोंकनी तेजी से अनुलोम विलोम करती नजर आती है । आप इनके इन प्र्त्यक्ष्य लक्षणों और इनकी ज्ञानेन्द्रियों से प्रवाहित पसीना,लानत भरे वाक्य ,आंसू,लार आदि से पहचान ही लेंगे की हाँ इन्होने बुरा मान लिया है.
इस संसार में भांति-भांति के लोग हैं। उनमें एक प्रजाति है ‘बुरा मानने वाले’इन्हें आप तुनक मिजाज,नाज़ुक मिज़ाज,नक् चढ़ा ,फूला-फटाका,आदि नाम से भी पुकार सकते हैं. ये प्रजाति सिर्फ और सिर्फ इस तन धारी ,विध्वंसकारी मानव प्रजाति में पायी जाती है .दुसरे जीव जंतुओं की तो भोजन,प्रवास और सहवास की जद्दोजहद में ही जिंदगी बीत जाती है .मानव प्रजाती ही है ,जिसको भगवान् ने एक्स्ट्रा बोनस स्वरुप दस कीड़े उसके प्रमस्तिक में डाल लिए हैं .ये प्रमस्तिक ही है जो मानव प्रजाति को और जीव जंतुओं से बदतर बनाता है. उसी में से एक कीड़ा है ‘बुरा मानने का’. वैसे तो ये होता है हम सभी के प्रमस्तिष्क में ,लेकिन ज्यादातर सुशुप्त अवस्था में ही होता है ,कभी कभार विशेष परिस्थिति में ही सक्रीय होता है , लेकिन किसी किसी भाग्यशाली के ये दिन रात कुलबुलाता रहता है. ये “बुरा मानने वाली “प्रतिभा अपने विशेष गुणों के कारण हमेशा पहचानी जाती है. इनकी सभी ज्ञानेन्द्रियाँ, जो भगवान ने इनके शरीर में यत्र तत्र सर्वत्र चिपका दी है , उनमें एक विशेष खासियत है कि ये किसी भी अनहोनी, गलती, घटना, या कमी को तुरंत देख-सुन पहचान लेती हैं. कभी-कभी तो इनकी छठी ज्ञानेन्द्रिय इतनी सक्रिय होती है कि भविष्य में क्या कमी होने वाली है, उसे भी तुरंत पहचान लेती है .इनके कुछ प्रत्यक्ष लक्षण जैसे अपना मुँह बुरा मानने की मुद्रा में टेढ़ा , भ्रकुटी तनी हुई,नाक के नथुने फूले हुए और फेंफडों की धोंकनी तेजी से अनुलोम विलोम करती नजर आती है । आप इनके इन प्र्त्यक्ष्य लक्षणों और इनकी ज्ञानेन्द्रियों से प्रवाहित पसीना,लानत भरे वाक्य ,आंसू,लार आदि से पहचान ही लेंगे की हाँ इन्होने बुरा मान लिया है.
इनका जन्म ही भगवान ने बुरा मानने के लिए किया है। जहाँ कहीं बुराई दिखाई, सुनाई या सूंघाई दी,या महसूस हुई , बस ये उसे पहचान लेते हैं और बुरा मान लेते हैं. हर किसी की जिंदगी में सूर्य ग्रहण की तरह कोई न कोई एक व्यक्ति, बुरा मानने वाला होता ही है. वह चाहे रिश्तेदार हो, पड़ोसी हो या दोस्त, कोई भी हो सकता है. महिला प्रजाति में इनकी संख्या अधिक होती है.क्यूँ की महिलाओं को भगवान् ने ज्ञानेन्द्रियाँ अति संवेदन शील ,और त्वरित क्रिया की प्रतिक्रया वाली दी है,जो न्यूटन के तीसरे नियम की क्रिया प्रतिक्रया की गति से भी तेज गती से परिलक्षित होती है.
एक हमारे दोस्त हैं. देने को तो भगवान् ने सब कुछ दिया है.सुन्दर बीबी है, बीबी से पैदा हुए दो बच्चे, बढ़िया घर है ,काम धंदे में भी अच्छी चान्दी है , और हाँ रसूख का लबादा भी ओढ़े हैं .लेकिन शायद उन्हें भगवान् ने अवतरित किया है केवल एक काम के लिए और वो है ‘बुरा मानने का’. और भगवान् के इस आदेश को बखूबी निभा भी रहे है.सुबह से लेकर शाम तक घर ,परिवार, दोस्त और समाज में ढूंढते रहते है की कोई उन्हें बुरा मानने के लिए प्रेरित करे, शाम तक अगर कोई इन्हें बुरा नहीं मानने के लिए उकसाता नहीं है तो घर पर जाकर बीबी के सामने अपने उद्देश्य की पूर्ती कर लेते हैं. वह हमारी एक संस्था के सदस्य भी हैं. पिछले 20 साल से एक ही संस्था में सदस्यता ले रखी है, हर साल सदस्यता रिन्यू करते हैं. साल में ही नहीं साल में चार बार रिन्यू करते हैं . बुरा मानने में इतने एक्सपर्ट हैं कि केवल उनका नाम गलत उच्चारण हो जाए, बैठने की कुर्सी पीछे सरक जाए, या गले में पड़ी माला छोटी पड़ जाए, तो बुरा मान लेते हैं.इनकी इसी आदत के कारन इन्हें संस्था में दबी जुबान से ‘फूफा ‘के नाम से बुलाते है .जब रूठ जाएंगे तो संस्था से कहकर निकलते हैं कि “मैंने बुरा मान लिया है .” चार दिन ये इंतज़ार करते हैं की कोई इन्हें मनाने आये. जब इन्हें लगता है कि इनके रूठने से संस्था को कोई फर्क ही नहीं पड़ा ,तो फिर संस्था में उनके कुछ स्थाई मुखविरों को फ़ोन करके कहते है,कि संस्था से कहो मुझे मनाने आयें. संस्था की कार्य कारिणी भी इनकी इस आदत से भली भांति परिचित हो चुकी है.इनके घर जाते है. ये दोस्त इन्हें समोसे कचोरी का नाश्ता कराते हैं ,और बिना कोई गिले शिकवे के ये वापस संस्था ज्वाइन कर लेते हैं.
इस प्रजाति की एक खासियत है, जितनी जल्दी बुरा मानते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं.क्यूँ की अगर ‘बुरा मानने वाले ‘मोड़ पर ही रहेंगे तो फिर वापस कैसे बुरा मानेंगे.
अब रिश्तों में देखा जाए तो ये बुआ, मौसी, फूफा के रूप में होते हैं. जैसे शादी-ब्याह में गणेश जी का स्थान विध्न हर्ता के रूप में प्रथम पूज्य होता है, वही स्थान इन्हें विघ्न कर्ता के रूप में मिला है . शादी-ब्याह में एक व्यक्ति की ड्यूटी तो सिर्फ इनकी देखभाल और इनके बदलते मूड को त्वरित गती से पहचान कर डमेज कण्ट्रोल के रूप में कुछ कन्तिन्जेसी प्लान तुरत फुरत लागु करने के उद्देश्य से लगाई होती है . इन्हें रूठने और बुरा मानने के लिए किसी विशेष परिस्थिति की जरूरत नहीं होती है , जैसे शंहंशाह मूवी का डायलाग है न ,’हम जहाँ खड़े होते हैं अदालत वहीँ लग जाती है’ इनका भी एक स्थाई मूक संवाद होता है,’हम जहाँ खड़े होते है,बुरा मानने की वजह साथ लिए होते हैं ” .इनकी मेहनत की दाद देनी होगी, सिर्फ बुरा ही नहीं मानते, बुरा क्यों माना है इसका एक पचनीय, तार्किक और सर्वभोमिक मान्य कारन बनाना भी इनकी मेहनत में शामिल है.
अब इनकी कुछ हरकतों की बानगी देखिये -जैसे कि बारात में देर से पहुंचेंगे, जब तक की दूल्हा खुद ही तैयार होकर घोड़ी पर न बैठ जाए. फिर ताने मारेंगे, “भाई, अब तो हमें कौन पूछेगा, खुद ही कर लिए हैं सारे काम.” बारात में हमेशा देर से पहुंचेंगे.ये जब घुसेंगे जनवासे में जब दूल्हा तोरण मारकर अंदर हो लिया हो . फिर ये इधर उधर निगाह मारेंगे,की कोई पानी की पूछने वाला नहीं है,किसी ने कुर्सी भी नहीं लगाइ, भतीजों ने पैर भी नहीं छुए हैं , किसी ने रामा श्यामा भी नहीं की ! बस फिर क्या इनका ‘बुरा मानने वाला मोड़’ ट्रिगर हो जाता है.
और रिश्तेदार भी इनके मजे लेने के लिए इनके लिए अनुकूल स्थिति बना देते हैं, जैसे दूल्हे के जूतों की जगह इनके जूते रख देते है ,ताकि दुल्हे की सालियां भूलवश उनको चुरा ले , इनकी कुर्सी गायब कर देंगे , पायजामे से नाड़ा गायब कर देंगे , इनकी पसंद की रसमलाई पहले ही खत्म कर देंगे आदि ।फूफाजी की पत्तल में रस्मालाई देखी नहीं की कोई न कोई ताना मार ही देगा, “अरे फूफाजी,रसमलाई!भुआजी तो कह रही थी आप ने डायबिटीज के चलते मिठाई छोड़ दी है.” बेचारे खींसे निपोरते हुए बेमन से रसमलाई को पत्तल से विदा करके कचरे दान में डालते हैं.
बुरा मानने वाले लोग ज्यादातर एकाकी जीवन व्यतीत करते हैं , कोई इनके मुहँ नहीं लगना चाहता, फेसबुक पर भी लोग इन्हें पहचान कर ब्लाक करते रहते है .यहाँ तक की होली का चिरातन काल से चला आ रहा ‘बुरा न मानो होली ‘ भी इनकी फितरत की रंगत को नहीं बदल सकता और ये वहां भी रँग लगाने या नहीं लगाने पर , भांग पिलाने या न पिलाने पर, इन्हें बुलाने या न बुलाने पर किसी भी परिस्थिति में सामान रूप से बुरा मान सकते हैं.