“बिना अपॉइंटमेंट के, बिना पर्ची कटवाए, जब कोई इस प्रकार धड़धड़ाते हुए प्रवेश करता है, तो निश्चित ही वह कोई परिचित ही होता है।”
ओपीडी में विराजमान, मैं अपनी नियमित हड्डी जोड़ तोड़ की प्रक्रियाओं में मस्तिष्क को खपा रहा था कि अचानक एक परिचित का आगमन हुआ। ,अब कोई बिना अपॉइंटमेंट के, बिना पर्ची कटवाए, जब इस प्रकार धड़धड़ाते हुए प्रवेश करता है, तो निश्चित ही वह कोई तथाकथित परिचित ही होता है। ऊपर से यह संबोधन, “पहचाना कौन?” मेरी अचेतन ज्ञानेंद्रियों को जगाने के लिए पर्याप्त था। मेरा मन त्वरित रूप से मेरी नियमित opd संचालन में आयी बाधा को पहचान कर, इसे ओपीडी से विदा करने का होता है, ताकि बाहर खडे हुए , दूर-दराज के गाँवों से आए मरीज़ परेशान न हों। मेरे ओपीडी कक्ष का द्वार भी इन परेशान मरीज़ों की बेचैनी और धक्का-मुक्की का शिकार हो चुका है, जिसके कब्जों और स्टोपर में कई बार ग्रीसिंग करवाई जा चुकी है। यह सब कुछ ऐसे ही परिचितों की घुसपैठ के कारण होता है, जिनका उद्देश्य मुझे गंभीरता से लेना नहीं, बल्कि यह जताना है कि देखो, वैसे तो हम ऐसे तीसमार खां है जो सब जगह दिहा ए है,महंगी से महंगी जांच करवा ली है, लेकिन चलो तुम परिचित हो ना,इसलिए एक अहसान तुम पर भी कर देते है,अब तुम पहले हमें चाय पिलाओ,हमारी उल जलूल बकवास सुनो ,हमारे ताने सुनो ,औसके बाद हमारी परेशानी ,और फिर परेशानी सुन ने के बाद तुम जो दवाईया जांच लिखी पर्ची हमे पक्दाओगे उसे हम तुम्हारे ही सामने ऐसे गुडमुड करके अपनी जेब में ठून्सेंगे की तुम्हे तुम्हारी औकात याद आ जायेगी |
खैर, हम इस सबके आदि हो चुके थे । सबसे पहले उनकी शंका –“पहचानो कौन ?” को दूर करते हुए हमने बमुश्किल उन्हें पहचान लिया। जल्दी से चाय का आदेश दिया। ताकि उन्हें जल्दी से विदा कर सकूँ | हालचाल पूछने के साथ ही गलती से पूछ बैठा, “अंकल, बेटा क्या कर रहा है आजकल? अब तो शादी हो गई होगी ना?” मानो उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वे आये तो मुझे अपनी टोंट बाजी से जलील करने, लेकिन लगता है जैसे उन्हें मेरी बात अच्छी नहीं लगी। रूआंसे से हो गए। शायद तीर उल्टा पड़ गया ,जिस कुर्सी पर बैठे थे, उस पर अपनी पकड़ और मजबूत बना ली थी, आँखें सिकुड़ सी गईं, चश्मा उतार कर आँखों को मसलने के बहाने शायद पीछे कुछ आँसू आ गए थे,उनको पोंछने लगे। मैंने पानी ऑफर किया ताकि आँसुओं के कारण आई शरीर में पानी की कमी की पूर्ति कर सकें। बोलने लगे, “क्या जमाना आ गया है, भगवान की दया से सब कुछ है, समाज में एक इज्जत है ,बड़ी बेटी की शादी शानदार से की, लड़का अच्छी कंपनी में अच्छे पैकेज के साथ बेंगलुरु में सेटल है। लड़का मेरा 35 साल का हो गया, मेरे पुश्तैनी बिजनेस को संभालता है, लेकिन रिश्ते ही नहीं आ रहे। पहले तो खूब रिश्ते आते थे, आजकल के लड़के भी न, मनमानी करते हैं, 10 लड़कियों को रिजेक्ट कर चुका है, पता नहीं कौन सी हूर की परी चाहिए इसे, और अब पिछले 5 साल से कोई रिश्ता भी नहीं आ रहा। समाज की जान पहचान का भी कोई फायदा नहीं,सब बस मजे लेने को हैं ,रिश्ता होने ही नहीं देते, जैसे ही कोई रिश्ता आता है उसे पता नहीं क्या पट्टी पढ़ाते है की उल्टा ही चला जाता है.
मुझे अच्छी तरह पता है इस परिवार का, ये खुद शहर की न जाने कितनी संस्थाओं में पदासीन है, अच्छा खासा दान संथाओं में देते हैं, मंच माला माइक से घिरे रहते हैं, चूँकि मेरे समाज से ही आते हैं वहां की भी ठेकेदारी ले रखी है, न जाने कितनी सामूहिक वैवाहिक सम्मेलनों में सेवा दे चुके हैं, परिचय सम्मेलन और वैवाहिक लड़के-लड़की मैचिंग के गुरु माने जाते हैं, लेकिन खुद के बेटे की शादी नहीं करवा पाए हैं। शायद वो खुद जिस दर्द के कारण मेरे पास आए थे, उसे भूल गए हैं।
मेरी तरफ कातर भरी निगाहों से देखकर पूछ ही लिया, “डॉक्टर साहब, आप देखो न कोई संबंध, अगर लड़की विधवा या तलाकशुदा हो तो वो भी चलेगी, ओवर ऐज हो गई ना।” मैं सोच रहा था, अंकल जी का सब्र का बाँध टूट गया है, हो सकता है साल दो साल में ये भी कोई बिहार या उत्तर प्रदेश से लड़की लाने की सोचें, वही अंकल जी जो पूरे शहर में इस प्रकार के अंतरजातीय विवाह करने वालों का समाज से बहिष्कार करने की वकालत करते थे, मखौल उड़ाते थे। अब खुद इसी वैकल्पिक व्यवस्था को अपनाने की मजबूरी से पीड़ित थे।
खैर , तब तक चाय आ चुकी थी। अब तक बोलते-बोलते सूख चुके उनके गले को चाय से थोड़ा तर किया और उन्हें विदा किया। जाते-जाते मुझे याद आया उन्होंने अपनी बीमारी तो बताई ही नहीं, शिष्टता वश पूछ ही लिया, “अंकल, अपनी परेशानी तो बताओ।” वे उदासी से भरे कदमों से बाहर निकलते हुए बोले, “नहीं आज तो मैं बस वैसे ही तुमसे मिलने चला आया था।”
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