सृष्टि संचालन के लिए प्रजनन प्रकृति का शाश्वत नियम है।
क्या आप जानते हैं कि-
- शुक्राणु और स्त्रीबीज, ओवम (डिम्ब) के मिलन से उत्पन्न एक कोशकीय युग्म, कैसे अरबों-खरबों कोशिकाओं में विभाजित होता है, कैसे विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ बनती हैं, कैसे विभिन्न कोशिकाओं के सुव्यवस्थित समूह से अंग-प्रत्यंग बनते हैं और मानव शरीर बनता है?
- गर्भस्थ शिशु का लिंग निर्धारण कैसे होता है? शुक्राणु और स्त्रीबीज में ऐसा क्या है जो इसे सम्भव करता है?
- शुक्राणु और स्त्रीबीज के केन्द्रक में स्थित 23-23 गुणसूत्र, और इन पर स्थित डी.एन.ए. से बने जीन्स की शंखला, जो कुल मिलाकर नमक के एक कण के सौंवे भाग से भी कम होती है, मनुष्य के पूरे जीवन चक्र को रासायनिक क्रिया द्वारा नियंत्रित करती है। एककोशीय युग्म से विभिन्न बहुकोशीय तन्तुओं का निर्माण, विभिन्न तन्तुओं के सन्तुलित समायोजन से अंगों का निर्माण, विभिन्न अंगों की आन्तरिक रासायनिक क्रियाएँ, विभिन्न अंगों की क्रियाओं का समन्वय व नियंत्रण 46 गुणसूत्रों पर स्थित जीन्स के द्वारा होता है। शरीर का रूप, रंग, विन्यास सब इन्हीं की निर्धारित प्रक्रिया के फलस्वरूप होता है।
- इन 46 गुणसूत्रों में दो (एक मॉं से आया और दूसरा पिता से आया) लिंग गुणसूत्र (सैक्स क्रोमोसोम्स) होते हैं जो व्यक्ति का लिंग, उसकी जननेन्द्रियॉं, यौन क्रिया, सन्तान उत्पत्ति और सन्तान पालन की प्रक्रियाओं को संचालित और नियंत्रित करते हैं। सृष्टि के भौतिक संचालन और उसे अक्षुण्ण बनाने का श्रेय अगर किसी को है तो इन दो लिंग गुणसूत्रों को। सृष्टि के रचयिता और नियन्ता यही दो लिंग गुणसूत्र हैं।
- स्त्रीबीजों, ओवा, में 23 गुणसूत्र होते है। सभी स्त्रीबीजों में केवल एक ही प्रकार का लिंग गुणसूत्र होता है जिसे एक्स क्रोमोसोम कहते हैं।
- इसके विपरीत पुरुषबीज शुक्राणुओं के 23 गुणसूत्रों में से एक लिंग गुणसूत्र एक्स या वाई होता है। एक्स गुणसूत्र वाहक शुक्राणु मादा इस अर्थ में होते हैं कि उनसे उत्पन्न हाने वाली सन्तान मादा होगी और वाई गुणसूत्र वाहक शुक्राणु, पुरुष, जिनसे नर सन्तान। अर्थात् शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं, नर-लिंग-गुणसूत्र वाहक और मादा-लिंग-गुणसूत्र वाहक।
- लिंग निर्धारण – ओवम जो एक्स क्रोमोसोमधारी होता है, अगर वाई क्रोमोसोमधारी नर शुक्राणु से मिलता है तो निषेचित युग्म एक्स$वाई क्रोमोसोम वाला होगा जिससे बालक का जन्म होगा। लेकिन अगर एक्स क्रोमोसोमधारी ओवम एक्स क्रोमोसोम मादा शुक्राणु से मिलता है तो युग्म एक्स$एक्स क्रोमोसोम वाला होगा जिससे बालिका का जन्म होगा। इस प्रकार सन्तान का लिंग इस पर निर्भर करता है कि निषेचन नर शुक्राणु (वाई क्रोमोसोमधारी) से हुआ है या मादा शुक्राणु (एक्स क्रोमोसोम धारी) से हुआ है। सन्तान का लिंग निषेचन पर ही निर्धारित हो जाता है, गर्भ के विकास के शेष समय तो जननांग के स्वरूप में लिंग व्यक्त करने और प्रकट करने का कार्य होता है। बच्चे के लिंग का निर्धारण पुरुष के शुक्राणु से ही होता है।
नरबीज (शुक्राणु) एक्स $ स्त्रीबीज एक्स = बच्चा एक्स$एक्स = लड़की
नरबीज (शुक्राणु) वाई $ स्त्रीबीज एक्स = बच्चा एक्स$वाई = लड़का
- लिंग चयन – क्या इच्छा अनुरूप लिंग का बच्चा पैदा कर सकते हैं? हाँ, अगर महिला की योनि में एक ही लिंग विशेष (एक्स या वाई) वाले शुक्राणु डाले जाएँ। केवल एक ही विधि है जिससे यह सम्भव है और वह है वीर्य में रसायन प्रक्रिया द्वारा नर शुक्राणु और मादा शुक्राणुओं को अलग-अलग करना और वांछित लिंग के शुक्राणुओं से गर्भाधान करवाना। इसके अलावा कोई और विधि नहीं है जिससे सन्तान का लिंग चयन किया जा सके। गर्भाधान के बाद तो किसी भी विधि से नहीं, न ही किसी दवा से और न ही खान-पान से।
- लिंग विभेदीकरण (डिफरेंसिएशन)ः निषेचन के समय निर्धारित लिंग को आनुवांशिक लिंग कहते हैं। इसी के अनुरूप सन्तान का बाहरी स्वरूप, नर या मादा जनानंगों का विकास होता है। यह आनुवांशिक रूप होता है। लेकिन व्यक्त रूप जननांग और जननेन्द्रियों के अनुरूप होता है। यह व्यक्त रूप का लिंग विकसित हुए (प्रकट हुए), जननांगों के सामान्य विकास (डेवलपमेंट) पर निर्भर करता है। लिंग विभेदीकरण प्रक्रिया में गड़बड़ या रूकावट से जनानंगों का स्वरूप बदल भी सकता है, बदला भी जा सकता है, शल्य क्रिया द्वारा और औषधि द्वारा। लेकिन केवल दिखने में, केवल बाहरी व्यक्त रूप में।
- आनुवांशिक लिंग भी गड़बडा़ सकता है। जैसे, अगर निषेचन उपरान्त युग्म में लिंग गुणसूत्र एक्स$एक्स (मादा) या एक्स$वाई (नर) की जगह एक्स$ज़ीरो हो, अर्थात्् 46 की जगह 45 गुणसूत्र हों, और लिंग गुणसूत्र युगल न होकर केवल एक एक्स ही हो, तो उस महिला में बाहरी जननांग तो होंगे लेकिन ओवरी बनेगी ही नहीं। फलस्वरूप महिला का लैंगिक विकास नहीं होगा, कद से नाटी होगी, मासिक नहं होगा और गर्दन के दोनों ओर चमड़ी उठी होगी। इसे टर्नर्स सिन्ड्रोम कहते हैं।
- इसके विपरीत अगर 46 की जगह 47, गुणसूत्र हों जिनमें लिंग गुणसूत्र तीन एक्स$एक्स$वाई हों, तो उसके जननांग तो पुरुष के होंगे परन्तु अण्डकोश अविकसित क्रियाविहीन होंगे, अतः महिला के लक्षण (स्तन, लोमविहीन त्वचा आदि) व्यक्त होंगे। इसे क्लिनफ़ेल्टर्स सिन्ड्रोम कहते हैं।
- उभयलिंगी – अगर युग्म की आधी कोशिकाओं में एक्स$वाई और आधी में एक्स$एक्स (मादा) हों तो उस व्यक्ति में पुरुष और महिला दोनों की जननेन्द्रियॉं (अण्डकोश और डिम्बग्रन्थि) शरीर में हांगी, जननांग भी। वह सच्चे रूप में अर्ध नारीश्वर होगा। आधुनिक विज्ञान में इसे ट्रू हर्मोफ्ऱोडाइट या असली उभयलिंगी कहते हैं।
- इस आनुवंशिक गड़बड़ी की जगह अगर जनेन्द्रियों के विभेदीकरण (डिफरेंसिएशन) में गड़बड़ हो जाए या कर दी जाए तो स्त्री में बाहरी जननांग पुरुष जैसे या पुरुष में बाहरी जननांग नारी जैसे हो सकते हैं। यह आन्तरिक लिंग विकास की प्रक्रिया में बाधा के फलस्वरूप होता है। इन्हें छद्म-उभयलिंगी या स्यूडो-हर्मोफ्ऱोडाइट कहते हैं। इनमें से किसे शिखण्डी, क्लीव या हिंजडा़ कहेंगे, यह विचार का विषय है। इनमें से कई बच्चों का लालन पालन लड़के के रूप में होता है और बडे़ होने पर वह लड़की हो जाता है या इससे उल्टा, लड़की से लड़का। महाभारत का शिखण्डी इनमें से किस शरीर संरचना का योद्धा था, मालूम नहीं। इनमें शल्य क्रिया द्वारा लिंग (जाननांग का केवल बाहारी स्वरूप) परिवर्तन सम्भव था और है।
- अर्धनारीश्वर – हर भू्रण में शुरू में वे दोनों तन्तु विद्यमान होते हैं जिनमें नर या मादा जननांग बनते हैं। लेकिन युग्म के आनुवंशिक लिंग गुणसूत्र के अनुरूप इनमें से किसी एक से जननेन्द्रियों का विकास होना है और दूसरा लुप्त प्रायः होता है। लेकिन इसके अवशेष शरीर में ही रहते हैं। हर पुरुष मे नारी के और हर नारी में पुरुष के जननेन्द्रियों के अवशेष होते हैं। हर पुरुष में नारी हॉर्मोन होते हैं और हर नारी में पुरुष हॉर्मोन। नर-नारी में प्राकृतिक आकर्षण का आधार है, हर नर में नारी और हर नारी में नर का होना। कहते हैं केवल श्रीकृष्ण ही सच्चे पुरुष थे, शेष तो सभी नर-नारी हैं।
- सामान्यतः गुणसूत्री लिंग के अनुरूप ही लिंग विशेष का व्यक्त रूप लिंग विभेदीकरण प्रक्रिया द्वारा प्रकट होता है। असामान्य परिस्थिति या परिवेश में विभेदीकरण गड़बड़ा सकता है, जिससे व्यक्त लिंगरूप, गुणसूत्रीय लिंग के विपरीत हो सकता है। कुछ छद्म-उभयलिंगी (स्यूडो-हर्मोफ्ऱोडाइट) इसी कारण होते हैं।
डॉ़ श्रीगोपाल काबरा
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