वक़्त-ए-पीरी ये कैसी मुलाकातें ,
जैसे हों ख़्वाब-ओ-ग़ुज़िश्ता की बातें ।
चढ़ी जवानी में खो गया वो सफ़र,
अब हैं दिल-ए-ख़राब की बातें ।
छेड़ के तान मधुर वो लौट न पाया,
गुज़र गईं हवा में बस बेचैन रातें ।
‘असीमित’ क्यों करे अब गिला यहाँ,
फकत रह गईं बिखरी मुलाक़ातें ।
~डॉ मुकेश असीमित
वक़्त-ए-पीरी वक्त-बुढ़ापे का वक्त
ख़्वाब-ओ-ग़ुज़िश्ता-गुजरा हुआ सपना